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________________ 190 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा वंदना के उपर्युक्त दोषों से रहित ही वंदना निर्दोष मानी गयी है। बत्तीस दोषों में से किसी एक के भी होते हुए साधु निर्दोष कृतिकर्म नहीं कर सकता है। प्रतिक्रमण : ____ व्यक्ति के अपने एक दीर्घ कालीन यात्रा में प्रमाद-वश पद-पद पर अन्तरंग व वहिरंग दोष लगा करते हैं, चाहे वह श्रावक हो या श्रमण। नीचे गिरना यह कोई विशेष अपराध नहीं, परन्तु गिरकर भी उठने का प्रयत्न न करना यह अक्षम्य अपराध है। श्रमण के श्रेयोमार्ग के लिए यह अति आवश्यक है कि वह अपना शोधन करता रहे। भूतकाल में जो दोष लगे हैं उनके शोधन हेतु,प्रायश्चित्त पश्चात्ताप,व गुरु के समक्ष अपनी निन्दा-गर्दा करना ही प्रतिक्रमण शब्द से कहा जाता है। दिन, रात्रि, पक्ष मास, संवत्सर आदि में लगे दोषों को दूर करने की अपेक्षा वह कई प्रकार का है। ___इस प्रतिक्रमण का निश्चयनय और व्यवहार नय की अपेक्षा दो प्रकार से प्रतिपादन होता है। निश्चयनय की अपेक्षा से पूर्व कृतकर्मों के प्रदत्त फलों को अपना न मानना प्रतिक्रमण कहा है। उत्तमार्थ आत्मा (कारण समयसार स्वरुप ) में स्थित मुनिवर कर्म का घात करते हैं, अतः ध्यान ही वास्तव में उत्तमार्थ का प्रतिक्रमण है।62 निज शुद्धात्म परिणति है लक्षण जिसका ऐसी जो क्रिया है वह निश्चय नय से वहत प्रतिक्रमण कही जाती है। 3 शुद्ध निश्चय नय में पर्याय को गौणकर ध्रुव तत्व की प्रमुखता रहती है। और उसकी अपेक्षा से तो ध्रुव त्रिकाल शुद्ध है अतः प्रतिक्रमण का प्रश्न ही नहीं है। परन्तु ऐसा सर्वथा मान लेने पर निश्चयाभास का प्रसंग प्राप्त होगा। अतः पर्यायार्थिक नय को विषय बनाकर कहा गया कि पर्याय में जो दोष हुआ है वह "मेरा दोष मिथ्या हो", गुरु से ऐसा निवेदन करके अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना प्रतिक्रमण है।64 अथवा प्रमाद के द्वारा किये दोषों का जिसके द्वारा निराकरण किया जाता है, उसको प्रतिक्रमण कहते हैं। इसी प्रकार का ही स्वरूप धवल में प्राप्त है। चौरासी लाख गुणों के समूह से संयुक्त पाँच महाव्रतों में उत्पन्न हुए मल को धोने का नाम प्रतिक्रमण है। द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव से किया गया जो व्रत में दोष उसका शोधना, आचार्यादि के समीप आलोचनापूर्वक अपने दोषों को प्रकट करना, वह मुनिराज का प्रतिक्रमण गुण होता है। तथा गुरुओं के सामने आलोचना किये बिना संवेग और निर्वेद से युक्त साधु को फिर कभी ऐसा न करेंगा यह कहकर अपने अपराध से निवृत्त होना प्रतिक्रमण नाम का प्रायश्चित्त होता है।67 प्रतिक्रमण के दैवसिक, रात्रिक, ऐपिथिक, चातुर्मासिक, सावंत्सरिक, और उत्तमार्थ प्रतिक्रमण ऐसे सात भेद किये गये हैं।68 जिनका भाव अपने शब्दों से स्पष्ट ही है।. अशुभ से निवृत्त होने रूप प्रतिक्रमण के 6 निक्षेप नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव में किये गये हैं।69
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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