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________________ पडावश्यक/वंदना 189 16. प्रतिनीत - देव गुरु आदि के प्रतिकूल होकर वंदना करना 17. प्रदुष्ट - दूसरों के साथ ट्रेप, वैर, कलह आदि करके उससे क्षमा मांगे या किये बिना वंदना आदि क्रिया करे। 18. तर्जित - दूसरों को भय दिखाकर अथवा आचार्यादि के द्वारा तर्जनी अंगुलि आदि से तर्जित अर्थात् अनुशासित किये जाने पर कि यदि नियमादि का पालन नहीं करोगे, तो आपको निकाल दूंगा-ऐसा तजित किय जाने पर ही वेदना करना तर्जित दोष है। 19. शब्द - मौन छोड़कर शब्द बोलते हुए वंदना करना शब्द दोष है। 20. हीलित - आचार्य या अन्य साधुओं का पराभव करके वंदना करना। 21. त्रिवलित - ललाट की तीन रेखाएं चढ़ाकर वंदना करना या वंदना करते समय कमर, हदय और कण्ठ इन तीनों में भंगिमा पड़ जाना। 22. कुंचित - घुटनों के बीच में मस्तक झुकाकर वन्दना करना दोनों हाथों से सिर का स्पर्शकर संकोच रूप होकर वंदना करना। 23. दृष्ट .. आचार्य के सामने ठीक से वन्दना करना, परोक्ष में स्वच्छन्दतापूर्वक अथवा इच्छानुकूल दशों दिशाओं में अवलोकन करते हुए वंदना करना। 24. अदृष्ट - आचार्य न देख सकें, अतः ऐसे स्थान से वंदना करना। 25. संघ कर मोचन - संघ के रुष्ट होने के भय से, तथा संघ को प्रसन्न करने के उद्देश्य से वंदना को कर (टैक्स ) भाग समझकर पूर्ति करना। 26. आलब्ध - उपकरणादि प्राप्त करके वंदना करना। 27. अनालब्ध - उपकरणादि की आशा से वंदना करना। 28. हीन - ग्रन्थ, अर्थ, कालादि प्रमाण रहित वंदना करना। 29. उत्तर चूलिका - वंदना को थोडे समय में पूर्ण करना तथा उसकी चूलिका सम्बन्धी आलोचना आदि को अधिक समय तक सम्पन्न करके वंदना करना। 30. मूक - मूक व्यक्ति की तरह मुख के भीतर ही भीतर वंदना पाठ बोलना अथवा वंदना करते हुए हुंकार, अंगुलि आदि की संज्ञा (चेष्टा ) करना। 31. दर्दुर - अपने शब्दों के द्वारा दूसरे के शब्दों को दबाने के उद्देश्य से तेज गले के द्वारा महाकलकल युक्त शब्द करके वंदना करना। 32. चुकुलित - एक ही स्थान हाकर, हाथा की अंजलि को घमाकर सबकी वंदना करना अथवा चुरुलित पाठ के अनुसार पंचमादि स्वर से (गाकर) वंदना करना।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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