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________________ 178 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा कन्दकन्दाचार्य ने प्रवचनसार में सामायिक संयम का उपदेश करते हुए भी भेदरूप 5 प्रकार से एवं विस्तार से 28 प्रकार से संयम का व्याख्यान किया। परन्तु इन सब भेदाभेद का प्रयोजन सर्व सावध योग के त्याग का भाव ही था। अतः वस्तुतः 24 तीर्थंकरों ने श्रमण का स्वरूप तो एक सा ही कहा, परन्तु शिष्यों की मानसिकता और उनके विवेक के आधार पर कथन पद्धति का संकोच- विस्तार कालक्रम से करना पड़ा। भेद पद्धति के इस व्यवहार क्रम में सामायिक को समझने के लिए मूलाचार में उसके निम्न प्रकार छह भेद किये हैं : 1. नाम सामायिक शुभ नाम और अशुभ नाम को सुनकर रागद्वेष आदि का त्याग करना नाम सामायिक 2. स्थापना सामायिक मूर्तियाँ सुस्थित हैं, सुप्रमाण हैं, सर्व अवयवों से सम्पूर्ण हैं, सद्भाव रूप हैं, तदाकार हैं, और मन के लिए आह्लादकारी हैं। पुनः, कुछ स्थापनाएं दुःस्थित हैं, प्रमाण रहित हैं, सर्व अवयवों से परिपूर्ण नहीं है और सद्भाव रहित-अतदाकार हैं। इन दोनों प्रकार की मूर्तियों में रागद्वेष का अभाव होना स्थापना सामायिक है। 3. द्रव्य सामायिक सोना चांदी और मिट्टी के ढेले में समभाव, उनमें रागद्वेष नहीं होना द्रव्य सामायिक 4. क्षेत्र सामायिक किसी भी क्षेत्र विशेष के साथ रम्य-अरम्य का रागद्वेषात्मक व्यवहार न होना क्षेत्र सामायिक है। वस्तुतः प्रत्येक द्रव्य का क्षेत्र उसके अपने प्रदेश हैं, निश्चय नय से तो उसी में उस द्रव्य का निवास है, बाह्य क्षेत्र तो व्यावहारिक हैं, अतः वे बदलते रहते हैं। उनके विनाश से आत्मा का विनाश नहीं है, फिर उन क्षेत्रादिक से रति-अरति कैसी ? पूज्यपाद स्वामी ने कहा है कि "जिन्हें आत्मस्वरूप की उपलब्धि नहीं हुयी उनका निवास गाँव और वन के भेद से दो प्रकार का है। किन्तु जिन्हें आत्म स्वरूप के दर्शन हुए हैं उनका निवास रागादि से रहित निश्चल आत्मा ही है14
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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