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________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा औधिक समाचार के उपर्युक्त विश्लेषण में इस बात का सहज बोध होता है कि साधु वर्ग समाज व्यवस्था में साक्षात् सिमटे हुए न होने पर भी वे किस तरह सधर्मा साधु वर्ग के प्रति सहयोग का व बड़ों के प्रति कितना सम्मान का भाव समेटे रहते हैं, और स्व पर के परिणामों के विकास में कितने सजग रहते हैं। इस तरह के सहयोग की सहज साध्य प्रवृत्ति व दूसरों के प्रति यथायोग्य करणीय व्यवहार सचमुच में साधु वर्ग से ही सीखा जा सकता है। 176 पद विभागिक समाचार : श्रमण गण सूर्योदय से लेकर सम्पूर्ण अहोरात्र निरन्तर जो आचरण करते हैं, वह सब पदविभागी समाचार है। यहाँ पद के अनुष्ठान का नाम पद विभागी है। अतः पद के योग्य प्रातः काल से लेकर पुनः सूर्योदय तक जो कार्य जैसे गमनागमन, चतुर्विशंतिस्तव, प्रतिक्रमण, सामायिक, आदि षडावश्यक, नित्यनैमित्तक क्रियाएं, आहार चर्या, आवास, आदि विविध एवं निरन्तर जिन नियमों का पालन करते हैं, वह सब पद विभागी समाचार कहलाता है । इस प्रकार यह पद विभागी समाचार अनेक प्रकार का कहलाता है । जैन श्रमण के लिए यह आवश्यक है कि वह अपनी दिनचर्या को चार भागों में विभक्त कर ले, प्रथम प्रहर में स्वाध्याय द्वितीय में ध्यान, तृतीय में भिक्षा चर्या, एवं चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय । इसी प्रकार रात्रि के प्रथम प्रहर में स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में ध्यान, तृतीय प्रहर में निद्रा एवं चतुर्थ प्रहर में पुनः स्वाध्याय करना चाहिए । जैन श्रमण की सम्पूर्ण चर्या जागरण रूप है उनका शयन भी वस्तुतः जागरण का ही एक दिव्य सन्देश लिये हुए है, क्योंकि "जिस रात में अर्थात् अज्ञानरूप अन्धकार में समस्त संसार सोता है, उसमें वह योगी स्वयं जागता है- आत्मस्वरूप सम्मुख होकर प्रबुद्ध रहता है। वह अपने में अवस्थित सिद्ध और सब कल्पनाओं से रहित आत्मा को जानता है। सब प्राणियों के विषय में जो रात्रि है, स्व-पर भेद सम्बन्धी अज्ञान है उसमें योगी जागता है, प्रबुद्ध रहता है। तथा अन्य प्राणी जिस रात में जागते हैं, जिस विषयानुराग में निरन्तर प्रतिबुद्ध रहते हैं - वह आत्मस्वरूप के देखने वाले मुनि के लिए रात्रि है - वे मुनि उसमें सदा अप्रतिबुद्ध रहते हैं। तात्पर्य यह कि आत्माववोध न होना रात्रि के समान तथा उसका होना दिन के समान है। अतः शोध के प्रस्तुत उद्यम में नव उत्साह, जागरण एवं अप्रदूषित अवस्था प्रातः कालीन वेला से प्रारम्भ करते हुए नित्य जागरण के प्रतीक रूप में सामायिक अवस्था के लिए उद्यमवन्तं होते हैं। क्योंकि ये सामायिक, चतुर्विशंति स्तव, वंदना आदि साधु के
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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