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________________ समाचार का अर्थ 175 गुरुकुल अर्थात् गुरुओं के आम्नाय-संघ में, गुरुओं के विशाल पादमूल में "मैं आपका हूँ" इस प्रकार से आत्म का त्याग करना-आत्म समर्पण कर देना, उनके अनुकूल ही सारी प्रवृत्ति करना यह उपसंपत् है। उपसंपत् का अर्थ उपसेवा अर्थात् अपना निवेदन करना, जो विनय आदि के विषय में किया जाता है। अतः इसके पाँच भेद हैं। (1) विनयोपसंपत् ( 2 ) क्षेत्रोपसंपत् ( 3 ) मार्गोपसंपत् ( 4 ) सुख-दुःखोपसंपत् ( 5 ) सूत्रोपसंपत्। 1. विनयोपसंपत् आगन्तुक अतिथि साधु की विनय और उपचार करना, उनके निवास स्थान एवं मार्ग के विषय में प्रश्न करना अर्थात् आप किस गुरु के हैं ? किस मार्ग से आये हैं? अर्थात् आप किस संघ में दीक्षित हुए हैं या आपके दीक्षा गुरु का नाम क्या है ? पश्चात् उन्हें समुचित वस्तु का दान करना जैसे पुस्तक, शास्त्र आदि, एवं उनके अनुकूल प्रवृत्ति करना आदि - यह विनय उपसंपत् है। 2. क्षेत्र उपसंपत् जिस क्षेत्र में संयम, तप, गुण, शील तथा यम और नियम वृद्धि को प्राप्त होते हैं। उस क्षेत्र में निवास करना, यह क्षेत्र उपसंपत् है। 3. मार्गोपसंपत - संयम, तप, ज्ञान और ध्यान से युक्त आगन्तुक और स्थानीय अर्थात् उस संघ में रहने वाले साधुओं के बीच जो परस्पर में मार्ग में आने-जाने के विषय में सुख समाचार पूछना है, वह मार्गोपसंपत् है। 4. सुख-दुःखोपसंपत् यदि आगन्तुक साधु सुखी है, और उन्हें यदि मार्ग में शिष्य आदि का लाभ हुआ है, तो उन्हें उनके लिए उपयोगी पिच्छि, कमण्डलु, आदि देना और यदि आगन्तुक साधु दुःखी है और व्याधि आदि से पीडित है, तो उनके लिए सुखप्रद शय्या संस्तर आदि आसन से एवं उनके हाथ पैर दबाना आदि वैयावृत्ति से उनका उपकार करना। 5. सूत्रोपसंपत् सूत्र पठन में प्रयत्न करना सूत्रोपसंपत् है। सूत्र के, लौकिक, वेद एवं समय की अपेक्षा से तीन भेद हैं। गणितादि शास्त्र लौकिक सूत्र हैं, सिद्धान्त शास्त्र वैदिक सूत्र हैं एवं तर्क शास्त्र को समय कहते हैं। इन सम्बन्धी शास्त्र सामायिक हैं एस ग्रन्थों का गुस्कुल में आत्म-समर्पित भाव से पढ़ना सूत्रोपसंपत् है।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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