SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 17
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा लिखकर इस आवश्यकता की ओर कदम उठाया था। परन्तु अभी तक जैन श्रमण के स्वरुप पर समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत नहीं हुआ था, वर्तमान काल में इसकी बहुत आवश्यकता महसूस की जा रही थी। मेरा जैन दर्शन/धर्म में पारम्परिक अध्ययन था, और इस क्षेत्र में मेरी तीव्र रुचि भी थी। अतः मैं इस विषय पर शोध कार्य हेतु आकृष्ट हुआ। उपर्युक्त पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर मैंने डॉ. श्री भागचन्द्र जी भास्कर भू.पू. निदेशक, जैन अनुशीलन केन्द्र, राजस्थान विश्वविद्यालय जयपुर, के समक्ष "जैन श्रमण : स्वरूप एवं मीमांसा" विषय पर शोध कार्य की योजना प्रस्तुत की; तदनुसार पिछले वर्षों में सतत अध्ययन-अनुसन्धान कार्य में दत्तचित्त रहकर जो उपलब्ध किया, उसे शोध प्रबन्ध के रूप में निम्न अध्यायों में प्रस्तुत किया गया था। प्रथम अध्याय जैन श्रमण की पृष्ठभूमि पूर्वक उसका विभिन्न धार्मिक ऐतिहासिक, साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में उनका इतिहास अर्थात् हिन्दु, मुस्लिम की दृष्टि में जैनश्रमण, भारतीय पुरातत्व में जैन श्रमणों के उल्लेख और उनका प्रभाव, भारत के विभिन्न साम्राज्यों में जैन श्रमण, संस्कृत, तमिल साहित्य में जैन श्रमण तथा जैन श्रमणों के विभिन्न संघों/सम्प्रदायों पर विचार विमर्श किया है। द्वितीय अध्याय में श्रमण के स्वरूप और अध्ययन को प्रस्तुत किया है। इसमें सर्वप्रथम धर्म का स्वरूप तदुपरान्त श्रमण और उसका धर्म, पंचमहाव्रत, गुप्ति आदि और उनके अतिचार, समिति, इन्द्रियजय, पडावश्यक, एवं शेष सात गुण के रूप में 28 मूलगुणों पर विस्तृत विवेचन एवं उस पर समीक्षा प्रस्तुत की है तथा यहीं पर श्रमण दीक्षा की पात्रता, दीक्षा ग्रहण विधि, पिच्छि कमण्डलु एवं उत्सर्ग-अपवाद मार्ग पर पूर्ण रूप से विचार किया गया है। तृतीय अध्याय में श्रमण की सम्पूर्ण आचार संहिता पर मीमांसा पूर्वक अध्ययन प्रस्तुत किया गया है। इसमें समाचार का अर्थ, भेद, आदि एवं पडावश्यकों पर विस्तृत समीक्षा व आहार चर्या को विश्लेषण सहित प्रस्तुत किया है एवं साथ ही एकल विहार, शरीर त्याग तथा अन्त में सदोप श्रमणों के स्वरूप पर विश्लेषण सहित समीक्षा प्रस्तुत है। चतुर्थ अध्याय में श्रमणों के विभिन्न भेद प्रभेद हैं। इसमें आचार्य, उपाध्याय का स्वरूप, प्रवर्तक, स्थविर,गणधर, तीर्थंकर मुनि का स्वरूप प्रस्तुत किया है,तथा इस प्रकार से भेद प्रदर्शित करते हुए चारित्र के पांच प्रकार के भेद, जिनकल्पी, स्थविर कल्यी का स्वरूप, पुलाक आदि श्रमणों का स्वरूप तथा द्रव्यलिंग एवं भावलिंग का समीक्षात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है,और अन्त में श्रमणों का धार्मिक, दार्शनिक, आदि विभिन्न क्षेत्रों में अवदान प्रदर्शित किया है।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy