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________________ प्राक्कथन भारतीय धार्मिक विचारधारा मुख्य रूप से दो भागों में विभक्त है। श्रमण विचारधारा एवं ब्राह्मण विचारधारा "ब्रह्मा" के ईर्द-गिर्द घूमती रहती है, जहाँ ईश्वर को सृष्टि का कर्ता-हर्ता-धर्ता तथा व्यक्ति के भाग्य का निर्णायक माना गया है। दूसरी श्रमण विचारधारा व्यक्ति के स्वयं के पुरुषार्थ पर टिकी हुयी है, जहाँ ईश्वर का उपर्युक्त कोई रूप नहीं मिलता अपितु प्रत्येक प्राणी को सर्वोच्च अवस्था प्राप्त करने का नैसर्गिक अधिकार प्राप्त है । ये दोनों विचारधाराएँ भारत के प्राचीनतम वांगमय से लेकर आज तक परिलक्षित हो रही हैं। " श्रमण" शब्द सम, शम, और श्रमण का द्योतक है। जैन श्रमणधर्म इन तीनों सिद्धान्तों पर टिका हुआ है। प्राचीन साहित्य को देखने से यह स्पष्ट आभास होता है कि इस श्रमण विचारधारा के परिपोषक कुछ अन्य सम्प्रदाय भी हुए हैं। बौद्ध धर्म इस श्रेणी में समाहित है, परन्तु इनमें जैन श्रमण सम्प्रदाय निःसन्देह प्राचीनतम कहा जा सकता है। प्राचीनतम वैदिक साहित्य में उपलब्ध प्रमाण इस कथन के समर्थन में प्रस्तुत किये जा सकते हैं। इस धर्म की परम्परा सामान्यतः ऋषभदेव से कही जा सकती है और महावीर के पश्चात् अविच्छिन्न रूप से अद्यावधि जीवित है । इस कालावधि में यह दिगम्बर और श्वेताम्बर के रूप में भी विभाजित हुआ, उनकी अपनी-अपनी परम्पराएँ भी पुष्पित एवं फलित हुयी हैं। यहाँ पर यह उल्लेख कर देना आवश्यक है कि " श्रमण " शब्द का प्रयोग मूल रूप से मुनि / साधु के सन्दर्भ में हुआ है। कालान्तर में यह शब्द जैन और बौद्ध विचारधारा का पर्यायवाची बन गया। यद्यपि "परिव्राजक " शब्द का प्रयोग भी इस सन्दर्भ में हुआ है, परन्तु वह अधिकांशतः वैदिक सम्प्रदाय के साथ जुड़ा हुआ है । मुनि, साधु, यति, व्रती, निर्ग्रन्थ आदि शब्द भी प्रयुक्त हुए हैं। परन्तु श्रमण शब्द का जितना अधिक प्रयोग हुआ है उतना दूसरे शब्दों का प्रयोग नहीं हुआ है। अतः अपनी इस कृति में "भ्रमण " शब्द को ही रखना उचित समझा। साथ ही बौद्ध श्रमण विचारधारा से पार्थक्य द्योतित करने के लिए "जैन श्रमण" शब्द को नियोजित किया है। जैन श्रमण की आचार-विचार परम्परा प्राचीनतम साहित्य से लेकर अधुनातम विविध भाषागत जैन साहित्य में उपलब्ध होती है । परन्तु इस विषय पर अभी तक कोई विशेष सांगोपांग विश्वविद्यालयी स्तर पर अध्ययन प्रस्तुत नहीं हुआ है। जबकि जैन श्रावकाचार पर पर्याप्त अध्ययन किया जा चुका है और हो भी रहा है । यद्यपि श्रमणाचार पर आंशिक रूपों में बाबू कामता प्रसाद जी ने दिगम्बरत्व और दिगम्बर मुनि " लिखकर इनका ऐतिहासिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया है, तो आर्यिका ज्ञानमती जी ने "दिगम्बर मुनि" लिखकर स्वरूप पर कुछ लिखा है। डॉ. एस. व्ही. देव ने "हिस्ट्री ऑफ जैन मोनाकिज्म"
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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