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जैन श्रमण : स्वरुप और समीक्षा
उपचरित, तण, औषधि का अपवाद स्वीकृत नहीं किया गया है, जो कि स्पष्ट ही है। अतः अपवाद का ग्रहण भी त्याग के अर्थ होता है। क्योंकि श्रमण के सर्वत्र शुद्धोपयोग का लक्ष्य ही सर्वोपरि है। अतः वह छेद के निषेध रूप है।187
सन्दर्भ-सूची : 1. सम्पूर्ण देशभेदाम्यां स च धर्मो दियाभेवेत् । आधे भेदे च निर्ग्रन्थाः द्वितीये गृहिणः
पदो पं0 6/400 2. श्रामण्यापरनाम मोक्षमार्ग व्याख्यानम् - "प्रवचनसार गा. 201 टीका की भूमिका । 3. उपासकाध्ययन - प्रस्तावना पृ0 92, ज्ञानपीठ प्रकाशन, संस्करण -1964 4. मूलाचार गा0 1 की टीका । 5. प्रवचनसार गा. 208-9 की जयसेनाचार्य टीका, पृष्ठ 806 पंक्ति 10-17 6. मूलगुणैः शुद्धस्वरुपं साध्यं "मूलाचार प्र0 सं0 4, पंक्ति-6, गाथा 2 की वसुनन्दि
टीका (ज्ञानपीठ प्रकाशन - 1984). 7. प्रवचनसार गाथा 208-9 8. समवायांग सूत्र 27/2 9. मूलाचार गा0 1 की टीका, पृष्ठ 2 ज्ञानपीठ प्रकाशन 10. ये मलुत्तर सण्णा मूलगुणा महव्वदादि अडवीसा । तव-परिसहादि भेदा, चोत्तीसा
उत्तरगुणक्खा ।।3।। मूलाचार, फलटण प्रकाशन 11. पदानन्दिपंचविंशति - धर्मोपदेशामृतमधिकार - श्लोक 40 12. तच्च संक्षेपेण पंचमहाव्रत रूपं भवति। तेषां व्रतानां च रक्षणार्थं पंचसमित्यादि भेदेन
पुनरप्टाविंशतिमूलगुणभेदा भवन्ति। प्रवचनसार पृ. 407 13. तेषां च मूलगुणानां रक्षणार्थं द्वाविंशति. परीषहजय द्वादशविध तपश्चरण भेदेन
चतुंस्त्रिशदुत्तरगुणा भवन्ति। तेषां च रक्षणार्थं देवमनुष्यतिर्यग चेतनकृतं
चतुर्विधोपसर्गजय द्वादशानुप्रेक्षा भावनादयमश्चेत्यभिप्रायः "प्रवचनसार पृ. 407 14. योग दर्शन, पाद 2, सूत्र 31, जातिदेशकालसमयानवच्छिन्ना सार्वभौमा महाव्रतम्। 15. महान् शब्दो महत्वे प्राधान्ये वर्तते व्रतशब्दोऽपि सावधनिवृत्तो मोक्षावाप्ति निमित्ताचरणे
वर्तते "महद्भिरनुष्ठितत्वात" । स्वत एव वा मोक्षप्रापकत्वेन महान्ति व्रतानि महाव्रतानि
प्राणासंयमनिवृत्ति कारणानि । मूलाचार टीका पृ. 6, (ज्ञानपीठ प्रकाशन ) 16. प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा,त. सू. अध्याय -------, सू. 17. सर्वार्थ सिद्धि - आठवां अध्याय सूत्र एक की टीका 18. मूलाचार पृ. 11-12 19. वही - गाथा 5 का विशेषार्थ 20. अनगार धर्मामृत 4.34 21. नियमसार गा. 57; मूलाचार गा. 290; आचार सार श्लोक 17; उत्तराध्ययन
25.40; दशवैकालिक 4.12