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________________ 160 जैन श्रमण : स्वस्प और समीक्षा स्वस्थ होकर पुनः दीक्षित हुए, ) परन्तु ऊँचे पद पर रहकर उसको कलंकित करना महान् अक्षम्य अपराध है। वैसे इस परिस्थिति में समाधिमरण योग्य है, परन्तु समाधिमरण न कर सके अथवा उसका जीवन धर्म प्रचार में गति दे सके तो दीक्षा छेद अनुपयोगी नहीं है। इस तरह मुनि दोषों से रहित होता है, वह फिर से शुद्ध हो सकता है, और उसके व्रतभंग का दोष नहीं लगता है।172 परन्तु मुनि पद रहते हुए वह साधु जिस शुद्ध-अशुद्ध देश में जैसा-तैसा शुद्ध-अशुद्ध आहार व उपकरण ग्रहण करता है तो वह श्रमण गुण से रहित होकर संसार को बढ़ाने वाला ही है।173 जो मुनि जिनलिंग को धारण करके फिर भी इच्छित परिग्रह का ग्रहण करते हैं। हे जीवः वे ही वमन करके फिर उस वमन को पीछे निगलते हैं।174 अतः अपवाद का अर्थ स्वच्छन्दता नहीं है। अपवाद मार्ग में भी योग्य ही उपधि आदि के ग्रहण की आज्ञा है अयोग्य की नहीं। श्वे. पं. सुखलाल जी संघवी ने अपवाद मार्ग में सामिष भोजन का समर्थन करते हुए जो यह कहा कि "सामान्य रूप से तो अनगार मुनि सामिप आहार की भिक्षा लेने को इन्कार ही कर देता था, पर बीमारी जैसे संयोगों से बाधित होकर लेता भी था तो उसे स्वाद या पुष्टि की दृष्टि से नहीं, केवल निर्मम व अनासक्त दृष्टि से जीवन यात्रा के लिए लेता था---प्राचीन काल में अपवादिक रूप से ली जाने वाली सामिप आहार की भिक्षा किसी भी तरह से अहिंसा, संयम और तपोमय औत्सर्गिक मार्ग की बाधक नहीं हो सकती है।। किन्तु सुखलालजी के द्वारा मान्य अपवाद मार्ग का यह स्वरूप कदापि संभव नहीं। अपवाद की भी कुछ सीमाएं निर्धारित हैं, जिनका कि श्रमण कभी भी अतिक्रमण नहीं करता है। जब श्रावक के लिए ही उपयुक्त आहार का निषेध है, तो श्रमण के सामिष भोजन की कल्पना कैसे की जा सकती है। सामिप भोजन करना "चाहे वह कैसी भी परिस्थिति ही क्यों न हो, जघन्य हिंसा है और श्रमण ऐसा त्रिकाल में नहीं कर सकता है, और जो ऐसा करता है, वह त्रिकाल में भी श्रमण नहीं माना जा सकता है। वह श्रावक बनकर यथेच्छ करे तो करे, परन्तु मुनि पद में यह असंभव ही है। अपवाद का अर्थ स्वच्छन्द जीवन नहीं है। इसी प्रकार श्वे. मुनि श्री न्यायविजय जी ने यह कहा कि "शिकारी शिकार का पीछा कर रहा है यदि मुनि उस समय अतथ्य बोले तो उसका अपवाद मार्ग है---स्त्री नदी में डूब रही है, साधु तपस्या छोडकर बचावे तो वह ब्रह्मचर्य में दोप लगने पर भी अपवाद मार्ग में होने से करणीय है।176 • यहाँ पर अपवाद के माध्यम से स्वच्छन्दता का ही पोपण है। भाषा समिति के पालक श्रमण को ऐसे समय में मौन धारण करना चाहिए तथा डूबती हुयी स्त्री को बचाना साधु पद के योग्य नहीं, क्योंकि ऐसी स्थिति में तो जंगल में "जिसकी लाठी उसकी भैस" की नीति होने से, वहाँ पर कहीं बिल्ली चूहा को तो कहीं कुत्ता बिल्ली का मारते रहते हैं और यह सब जंगल का मान्य सिद्धान्त है। यह सब श्रमण की आखों के सामने होता रहता है, तो व ध्यान छोड़कर क्या बचाने का व्यवसाय करेंगे ? परन्तु वे इन दशाओं में अनित्यादि बारह
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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