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________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा नहीं पड़ी। उसी प्रकार सामान्य रूप से मोक्ष का मार्ग आत्मा को जानो मानो और उसमें रमण करो, सभी तीर्थंकरों ने यही कहा । परन्तु जब उसमें स्थिर रहा न जाए तो अन्यथा, प्रवृत्ति न होने लगे। अतः अनर्गल प्रवृत्ति को रोकने के लिए ही अपवाद-मार्ग का आय लिया गया। अपवाद मार्ग मोक्षमार्ग नहीं अपितु उसका सहयोगी है। 158 प्रवचनसार में गा. 230 की अमृतचन्द्र टीका में भी यही देखने को मिलता है । वहाँ कहा है कि " " शरीरस्य शुद्धात्मतत्व साधनभूत संयम साधनत्वेन मूलभूतस्य छेदो न यथा स्यात् तथा बाल वृद्धश्रान्तग्लानस्यस्वस्य योग्य मृद्वाप्याचरणमाचरणीयमित्यपवादः ।" अर्थात् बाल, वृद्ध, श्रान्त व ग्लान मुनियों को शुद्धात्मतत्व के साधन भूत संयम का साधन होने के कारण जो मूलभूत हैं, उसका छेद जिस प्रकार न हो उस प्रकार अपने योग्य मृदु आचरण ही आचरना चाहिए, इस प्रकार अपवाद है। आचार्य जयसेन भी इस गाथा में यही कहते हैं कि "असमर्थ पुरुषः शुद्धात्मभावना सहकारितभूतं किमपि प्रासुकाहार ज्ञानोपकरणादिकं गृहणातीत्यऽपवादो "व्यवहारनय" एकदेश परित्यागस्तथा चापहृतसंयमः सरागचरित्रं शुभोपयोग इति यावदेकार्थः " अर्थात् असमर्थ जन शुद्धात्मभावना के सहकारी भूत जो कुछ भी प्रासुकाहार ज्ञान व उपकरण आदि का ग्रहण करते हैं, उसी को अपवाद, व्यवहारनय, एकदेश त्याग, अपहृत संयम, सरागचारित्र, शुभोपयोग इन नामों से कहा गया है। प्रवचनसार में ही अमृत चन्द्र ने उत्सर्ग मार्ग का स्वरूप बतलाते हुए कहा कि आत्मद्रव्यस्य द्वितीयपुद्गलद्रव्या भावात्सर्वएवोपाधिः प्रतिषद्धः उत्सर्गः 166 अर्थात् उत्सर्ग मार्ग वह है कि जिसमें सर्व परिग्रह का त्याग किया जावे, क्योंकि आत्मा के एक अपने भाव के अतिरिक्त परद्रव्य रूप दूसरा पुद्गल भाव नहीं है। और चूंकि व्रत, तप आदि शुभ भाव पौद्गलिक भाव हैं, क्योंकि यह पर अर्थात् शारीराश्रित हैं । अतः उत्सर्ग मार्ग परिग्रह रहित है । शुद्धात्मा के सिवाय अन्य जो कुछ भी बाह्य अभ्यन्तर परिग्रह रूप है उस सर्व का त्याग ही उत्सर्ग है। 68 निश्चय नय कहो या सर्व परित्याग कहो या परमोपेक्षा संयम कहां, या वीतराग चारित्र कहो या शुद्धोपयोग ये सभी एकार्थवाची हैं। 167 अतः बाल, वृद्ध, श्रमित या ग्लान ( रोगी ) को भी संयम का जो शुद्धात्म तत्व का साधन होने से मूलभूत है उसका छेद जैसे न हो उस प्रकार संयत को अपने योग्य अति कर्कश आचरण ही आचरना उत्सर्ग है। और यही उत्सर्ग वस्तुधर्म अर्थात् श्रमण धर्म है। मोक्षमार्ग का कारण है। अपवाद माक्ष का साक्षात् कारण नहीं है। 169 क्योंकि जब सर्वज्ञ देव ने देह को परिग्रह कहकर देह में भी संस्कार रहितपना कहा है। तब अन्य परिग्रहों को तो अवकाश ही कहाँ है। जैन दर्शन में यथाजात रूप, लिंग, गुरु के वचन, सूत्रों का अध्ययन और विनय भी उपकरण कहे हैं, और उपकरण परिग्रह है । अतः इसको अपवाद-मार्ग में ही स्वीकारा है, उत्सर्ग-मार्ग के रूप में साक्षात् मोक्षमार्ग नहीं कहा है।
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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