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________________ जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा तथा कार्तिक मास में स्वतः झड़ जाते हैं। अपने आप झड़कर भूमि पर पड़े हुए इन पंखों को लेने पर मुनि को अदत्तादान से उत्पन्न होने वाला चोरी का दोष नही लगता है, और बड़े पैमाने पर मिलते रहने की वजह से इनकी प्राप्ति में विघ्न नहीं आता है। ये सदैव, प्रतिवर्ष नियत समय पर बिना हिंसा के, वृक्षों से स्वयं गिरे हुए पत्तों की तरह झड़ जाते हैं । परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि इसी तरह प्रकृति प्रदत्त अन्य सामग्री भी जो स्वयं गिर जाती है (फलादिक) भ्रमण ग्रहण कर सकें । मयूरपिच्छ के ग्रहण का इस तरह का विधान तो उनकी अहिंसक वृत्ति को निराबाध पालन हेतु है । 152 मयूरपिच्छ के गुण बतलाते हुए आचार्य शिवार्य कहते हैं कि जो पिच्छि धूल और पसीने को न पकड़ती हो, कोमल स्पर्शवाली हो, सुकुमार हो, हल्की हो, जिसमें ये पाँच गुण होते हैं वह प्रतिलेखना प्रशंसनीय है। 153 इसकी विजयोदया टीका में कहा है कि "सचि या अचित्त रज और पसीने को ग्रहण न करती हो, क्योंकि अचित्त रज को ग्रहण करने वाली पिच्छि से सचित्त रज की प्रतिलेखना करने पर उनमें रहने वाले जीवों का घात होता है । और सचित्त रज को ग्रहण करने वाली पिच्छि से रज में रहने वाले जीवों का घात होता है। पसीने को पकड़ने वाली पिच्छि से रज में रहने वाले जीवों का घात होता है । अतः पिच्छि, कोमल स्पर्श वाली, सुकुमार और हल्की होनी चाहिए। जिस प्रतिलेखन में ये पाँच गुण होते हैं, दया की विधि को जानने वाले उसकी प्रशंसा करते हैं। इसका भाव यह है कि कठोर, असुकुमार और भारी प्रतिलेखना से जीवों का घात ही होता है, दया नहीं । पिच्छि के प्रयोग की विधि बतलाते हुए कहा कि "गमन में, ग्रहण में रखने में मल-त्याग के स्थान में, बैठने में, शयन में, ऊपर को मुख करके सोने में, करवट लेने में, हाथ-पैर फैलान में संकोचन में और स्पर्शन में पिच्छि से परिमार्जन करना चाहिए।' 54 श्वेताम्बरीय परम्परा में इस पिच्छिका को रजोहरण से व्यवहत किया है। दिगम्बर परम्परा में तो मयूर पंख की पिच्छि होती है, इसलिए इसका नाम भी पिच्छि पड़ा । परन्तु श्वेताम्बर श्रमण मयूर की पिच्छ प्रयोग नहीं करते हैं। उनके यहाँ रजोहरण निम्न वस्तुओं से बनते हैं। 1. और्णिक भेड़ की ऊन से बने रजोहरण 2. औष्ट्रिक - ऊँट के बालों से बने रजोहरण 3. सानिक सन से बने रजोहरण - 4. पच्चापिच्चिय - वल्वज नामक मोटी घास को कूटकर बनाया गया रजोहरण 5. मुज्जापिच्चिय- मूंज को कूटकर बनाया रजोहरण 155 यहाँ पर श्वेताम्बर परम्परा के ये रजोहरण, चूँकि यहाँ परिग्रह के प्रतीक वस्त्रादिक भी स्वीकृत हैं । अतः फिर सहज रूप से रजोहरण भी उसी शैली के स्वीकृत हुए। उपर्युक्त विधि से बने रजोहरणों में ऊँट और भेड़ के बालों- रामों से बनाये हुए रजोहरणों में सम्मूर्च्छन जीव भी पैदा होते हैं। जबकि मयूरपिच्छि के साथ ऐसा नहीं है। तथा रजीहरण
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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