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________________ -151 पिच्छि-कमण्डलु "मुद्रा सर्वत्र मान्या स्यान्निर्मुद्रो नैव मन्यते" अर्थात् मुद्रा की सब जगह मान्यता है जिसके पास मुद्रा नहीं होती, उसकी लोक में भी मान्यता नहीं होती है। राष्ट्र की भी अपनी मुद्रा होती है। कागज का रूपया भी मुद्रा से चलता है, अन्यथा उसकी कीमत नहीं है। इसी तरह दिगम्बर मुनि भी पिच्छि और कमण्डलु से जाने जाते हैं। इनके बिना तो उन्मत्त पुरुष के भ्रम की संभावनाएं ही प्रबल रहती हैं। भद्रबाहु क्रियासार में श्रमण के लिए पिच्छि रखना अनिवार्य बतलाया है। जो सवणो णहि पिच्छं गिणहदि णिदेदि मूढचारित्तो। सो सव्व-संघ वज्झो अवंदमिज्जो सदा होदि।। 79 ।। अर्थात् जो श्रमण पिच्छि को ग्रहण नहीं करता और उसकी निन्दा करता है वह "मूढ़ चारित्र" है। क्योंकि चारित्र पालन में कार्योत्सर्ग और आने-जाने में तथा उठने-बैठने में पिच्छि से परिमार्जित करने की आवश्यकता है। पिच्छि बिना सम्यक् चारित्र का पालन नहीं होता है। अतः पिच्छि के बिना श्रमण, संघ से निष्कासन करने योग्य है और अवन्दनीय है। इस कारण पिच्छि जिनशासन की शान है। दिगम्बर श्रमण के लिए मयूर के पंख की पिच्छि का उपयोग करने के लिए कहा गया है। एक अहिंसक एवं महाव्रतधारी श्रमण के लिए प्रकृति द्वारा सहज-प्रदत्त इस प्रकार के उपादान को स्वीकारना अहिंसा में साधक ही है, बाधक नहीं। दिगम्बर श्रमण के पास कुछ भी वस्त्रादिक कृत्रिम परिग्रह नहीं होता है, यदि ऐसा होता तो उसको भी श्वेताम्बरों की तरह रजोहरण आदि जैसे उपकरण दिये जाते। परन्तु नग्न निरीह श्रमण को किसी प्रकार का पाणिपाद-स्पर्श-आघात, आलेखनजन्य दोष न लगे, इसी प्रयोजन वश पिच्छि रखने का विधान है। तत्वार्थ श्लोक वार्तिककार ने "दत्तादानं स्तेयं152 की व्याख्या में निर्देश दिया है कि, किसी के द्वारा दिये बिना किसी वस्तु को ऐसे ही ग्रहण कर लेना चोरी कहलाती हैयह सामान्य नियम है। चाहे संसारी व्यक्ति हो अथवा वीतरागी मुनि, अदत्तादान सभी के लिए निषिद्ध है। तब पिच्छि और कमण्डलु के लिए श्रमण क्या करें ? याचना करना निंदनीय है। साथ ही शौच एवं संयम के लिए उनका रखना भी आवश्यक है। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि दिगम्बर मुनि को धर्म पालने के लिए शास्त्रादेश के पालन में, नदियों, झरनों का जल, शुष्क भस्म आदि तथा स्वयंमुक्त मयूरपिच्छि, स्वयंवृन्तच्युत तुम्बीफल आदि ग्रहण करना स्तेय नहीं है। श्रमण को संयम के लिए मयूर पिच्छि के प्रयोग का ही निर्देश है। इसका कारण यह है कि यह ग्राम अथवा वन प्रायः सभी जगह पाया जाता है। यह वस्तु व्यवस्था के कौशल एवं आदर्श का प्रतीक है। इसी के पंख ऐसे हैं कि जो अत्यन्त सुकोमल एवं दोपनिरोधक है
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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