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________________ मूलगुण 127 ___गणी जी ने तो जिनकल्प को केवल "जिनों" की ही वस्तु कही है, मानों उनके अनुयायी धारण कर ही नहीं सकते। शायद गणी जी के समय मात्र चोलपट्ट ही प्रचलित हो। परन्त अधिक वस्त्रों की परम्परा चली तो परवर्ती श्रमणों ने भी उसी उक्ति का सहारा लेकर अपने वृद्धिंगत वस्त्रों को मान्यता प्रदान की। दशवकालिक में एक सूत्र आया है "नगिणस्य वा वि मुण्डस्य दीहरोमनहंसिणो । मेहुण - उवसंतरय कि विभूसाई कारिअं ।। 64।। इसमें कहा है कि नंगे, मुंडे हुए, दीर्घ रोम और दीर्घ नख वाले तथा मैथुन से विरत साधु को आभूषणों से क्या प्रयोजन है ? इसके "नगिणस्स" पद का अर्थ चूर्णिकार ने तो नग्न ही किया है यथा-नागिणों णग्गा भण्णई" किन्तु हरिभद्र110 सूरि ने नग्न के उपचार नग्न और निरूपचरित नग्न ये दो भेद करके कुचेलवान साधु को उपचरित नग्न कहा है, और जिनकल्प को निरूपचरित नग्न कहा है। परन्तु यहाँ यह ध्यान देने योग्य है कि दशवैकालिक सूत्र में भी जिनकल्प और स्थविर कल्प का ऐसा निर्देश नहीं है। जब तक श्वेताम्बर सम्प्रदाय में अल्पचेल की पद्धति प्रचलित रही, तब तक टीकाकारों111 को इस अचेल का अर्थ अल्पचेल करते हुए पाते हैं। किन्तु जब साधु अधिक वस्त्र रखने लगे तो अचेल का अल्पचेल अर्थ संगत नहीं रहा। अतः तब अचेल112 का अर्थ कम मूल्य वाले वस्त्र किया जाने लगा। यहाँ यदि अचेल और नाग्न्य का अर्थ अल्पचेल या अल्पमूल्य चेल धारण करना हो तो अचेल या नाग्न्य परिषह नहीं बन सकती, कम या कम मूल्य के वस्त्र धारण करना साधु के लिए परीषह नहीं है। अल्प वस्त्र धारण करने से शीत ऋतु में शीत की बाधा हो सकती है, डांस मच्छर से बचना कठिन हो सकता है। किन्तु उसके लिए तो शीत परीषह और दंसमसक परीषह गिनाई गयी है। नाग्न्य परीषह तो तभी सफल है जब मनुष्य यथाजात रूप हो उसकी कामेन्द्रिय निरावरण हो।113 दशवैकालिक सूत्र के छठवें अध्ययन में लिखा है जं वि वत्थ व पायं वा कंवलं पायपुंछणं । तं वि संजमलज्जहा धरंति परिहरंति अ ।। 19।। इसका अर्थ करते हुए हरिभद्र सूरि ने लिखा है कि "पात्र वगैरह संयत के लिए है और वस्त्र लज्जा के लिए है। वस्त्र बिना स्त्री आदि की उपस्थिति में विशिष्ट श्रुताभ्यास से रहित साधु निर्लज्ज हो सकता है।" इससे यह स्पष्ट है सच्चा श्रमण महा-परीपह
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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