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________________ 126 जैन श्रमण : स्वरुप और समीक्षा मुनि कल्याणविजय जी के शब्दों में ही देखें तो "पहले प्रति-प्रति व्यक्ति एक ही पात्र रखता था, पर आर्यरक्षित सूरि ने वर्षाकाल' में एक मात्रक नामक अन्य पात्र रखने की जो आज्ञा दी, उसके फलस्वरूप आगे जाकर मात्रक भी एक अवश्य धारणीय उपकरण हो गया। इसी तरह झोली में भिक्षा लाने का रिवाज भी लगभग इसी समय चालू हुआ जिसके कारण पात्र निमित्तक उपकरणों की वृद्धि हुयी। परिणामस्वरूप स्थविरों के कुल 14 उपकरणों की वृद्धि हुयी। जो इस प्रकार से है-(1) पात्र (2) पात्रबन्ध (3) पात्रस्थापन (4) पात्र प्रमार्जनिका (5) पटल (6) रजस्त्राण (7) गुच्छक (8-9 ) दो चादर (10) ऊनीवस्त्र (11) रजोहरण (12) मुख वस्त्रिका (13) मात्रक (14) चोल पट्टक। ये उपधि औधिक अर्थात् सामान्य मानी गयी और आगे जाकर इसमें जो कुछ उपकरण बढाये गये वे औपग्राहिक उपधि में संस्तारक, उत्तरपट्टक, दंडासन और दंड ये विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। ये सब उपकरण आज भी श्वेताम्बर श्रमण में पाये जाते हैं। बढती हुयी वस्त्र की आवश्यकताओं को और अधिक प्रामाणिकता देने के लिए अचेलक प्रतिपादक आचारांग, स्थानांग एवं कल्पसूत्र के अचेलक वाक्यों को जिनकल्प प्रतिपादक कहा जाने लगा और जब इतने से भी काम न चला तो अचेलक का अर्थ नाग्न्य जैसे स्पष्ट शब्दों की व्याख्याएँ भी परिवर्तित की जाने लगी और परिग्रह विरमण में भी आभ्यन्तर परिग्रह के ममत्व के त्याग पर ही जोर दिया जाने लगा यहाँ ऐसे कुछ स्थल प्रस्तुत हैं तत्वार्थ सूत्र श्वेताम्बर सम्मत पाठ में भी नाग्न्य परीषह का उल्लेख है। उसका अर्थ करते हुए सिद्धसेन गणि कहते हैं।109 नाग्न्य परीषह का यह आशय नहीं है कि कोई उपकरण ही न रखा जाए जैसे कि दिगम्बर साधु लेते हैं। किन्तु प्रवचन में कहे हुए विधान के अनुसार नाग्न्य होना चाहिए। बीच में शिष्य प्रश्न करता है कि दस प्रकार के कल्प में आचेलक्य कल्प भी तो आवश्यक है, तो उसका उत्तर देते हुए गणी जी कहते हैं-"तुम्हारा कथन ठीक है किन्तु आचेलक्य जिस प्रकार कहा गया है उसी प्रकार करना चाहिए। तीर्थंकर जिनकल्प एक भिन्न ही है, तीर्थंकर जन्म से तीन ज्ञान के धारी होते हैं, और चारित्र धारण करने पर चार ज्ञान के धारी होते हैं। अतः उनका पाणिपात्री होना और एक देवदूष्य धारण करना युक्त है। किन्तु साधु तो उनके द्वारा उपदिष्ट आचार का पालन करते हैं। जीर्ण, खण्डित और समस्त शरीर को ढांकने में असमर्थ वस्त्र ओढते हैं। इस प्रकार का वस्त्र रखते हुए भी वे अचेलक ही हैं, जैसे नदी उतरते समय शिर पर कपड़ा लपेटे हुए मनुष्य सवस्त्र होने पर भी नग्न कहलाता है, वैसे ही गुह्यप्रदेश को ढांकने के लिए चोलपट्ट धारण करने वाला साधु भी नग्न ही है।"
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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