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________________ 106 जैन श्रमण : स्वरूप और समीक्षा अवस्थाएं होती है। इस प्रकार से 9 भेद हुए। नौ प्रकार के भदों में मन-वचन-काय से गुणा करने पर 27 भेद एवं 27 को कृत, कारित, अनुमोदना से गुणा करने पर 81 भेद होते हैं। फिर 81 को चेतन और अचेतन दो भेदों से गुणा कर दिया जाए तो 162 भेद प्राप्त होते हैं। अचेतन का विकल्प काष्ठ, पाषाण आदि की प्रतिमाओं एवं चित्रों से संभव है। इस प्रकार ब्रह्मचर्य व्रत नव प्रकार का, इक्यासी एवं 162 प्रकार का होता है। उपर्युक्त ब्रह्मचर्य महाव्रत को निरतिचार पालने के लिए, पाँच प्रकार की भावनाओं पूर्वक स्त्रियों आदि में राग को पैदा करने वाली कथाओं के सुनने का त्याग, उनके मनोहर अंगों को देखने का त्याग, पूर्व भोगों के स्मरण का त्याग, गरिष्ठ और इष्ट रस का त्याग, तथा अपने शरीर के संस्कार का त्याग-इन पाँच भावनाओं से ब्रह्मचर्य का पालन किया जा सकता है।38 भगवती आराधना की विजयोदया टीका में ब्रह्मचर्य के त्याग की चर्चा करते हुए कहा कि, अब्रह्म के त्याग में तत्पर साधु, कस्तूरी आदि गंध, चार प्रकार की माला, कालागुरू आदि धूप, मुख को सुवासित करने वाले जाति फल आदि अथवा अनेक सुगन्धित द्रव्यों का मिश्रण हाथों से शरीर की मालिश, पैरों से शरीर को दबवाना आदि कार्य ब्रह्मचर्य के घातक एवं हिंसा परक होने से छोड़ देता है ।39 श्रमण और महिला वर्ग व्यवहार : जैनधर्म के श्रमणाचार प्ररुपक साहित्य में श्रमण को आर्यिका से भी फिर चाहे वह कितनी ही तपस्वी ही क्यों न हो, उससे भी दूर रहने का विधान मिलता है। जैनाचार्य यह भली-भांति जानते थे कि स्पर्शन इन्द्रिय के विषय से विरक्ति अत्यधिक महत्वपूर्ण है। इसी कारण उन्होंने इस प्रकरण को निर्दोष व लोकापवाद रहित बनाने के लिए आर्यिका जनों से भी दूर रहने का विधान किया है। श्रमण (आचार्य) और आर्यिका का भी वचन व्यवहार अत्यावश्यक धार्मिक कार्यों तक ही सीमित है। सामान्य श्रमण ( आचार्य, उपाध्याय रहित ) तो आर्यिका से भी किसी भी तरह का वार्तालाप नहीं कर सकता, सामान्य महिलाजनों के साथ वार्तालाप के प्रश्न का अवकाश ही कहाँ शेष रहता है। आचार्य/उपाध्याय श्रमण के यहाँ कुछ आर्यिकाएं एक साथ मिलकर उनके पास अध्ययन आदि अथवा शंका-समाधान हेतु जा सकती हैं, परन्तु अकेले नहीं। यहाँ भी नवदीक्षित आर्यिका संभाषण नहीं करे, अपितु दीक्षा ज्येष्ठ आर्यिका, आमने-सामने नहीं बैठते हुए, थोड़ा तिरछे बैठकर अधोनत मुद्रा में अति विनीत भाव में मंद स्वर से अपनी जिज्ञासा प्रगट करे। आचार्य बट्टकेर कहते हैं कि "तरुण श्रमण किसी भी तरुणी आर्यिका या अन्य किसी स्त्री से कथा वार्तालाप न करे। यदि इसका उल्लंघन करेगा तो आज्ञा कोप, अनवस्था (मूल का नाश ) मिथ्यात्वाराधना, आत्मनाश, और संयमविराधना, इन पापों के
SR No.032455
Book TitleJain Shraman Swarup Aur Samiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYogeshchandra Jain
PublisherMukti Prakashan
Publication Year1990
Total Pages330
LanguageHindi
ClassificationBook_Gujarati
File Size25 MB
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