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________________ (क) घातीकर्म : जो कर्म-पुद्गल आत्मा से चिपककर आत्मा के मुख्य या स्वाभाविक गुणों की घात करते हैं - उनका हनन करते हैं, उनको घातीकर्म कहते हैं । इन कर्मों का मूलोच्छेद होने से ही आत्मा सर्वज्ञ या स्वदर्शी बन सकती है । ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय और अंतराय ये चार घातीकर्म कहलाते हैं । (ख) अघातीकर्म : जो कर्म आत्मा के मुख्य गुणों का घात नहीं करते, उनको हानि नहीं पहुँचाते, वे अघातीकर्म कहलाते हैं । घातीकर्मों के अभाव में ये कर्म पनपते नहीं, उसी जन्म में शेष हो जाते है । वेदनीय, आयुष्य, नाम और गोत्र - ये चार अघातीकर्म हैं । घातीकर्म चार और अघातीकर्म चार मिल के मुख्य आठ प्रकार के कर्म है। __ कर्म-सिद्धांत यह मानकर चलता है कि जीव द्वारा किये हुए कर्मों का अपने फलों से घनिष्ठ सम्बन्ध होता है । प्रत्येक कर्म काल क्रम में अपना फल अवश्य देता है । इसकी दूसरी मान्यता यह है कि पूर्वकृत कर्मों के फल का भोक्ता कर्म करनेवाला व्यक्ति ही होता है अर्थात् पूर्ववर्ती कर्मों का कर्ता ही उसके भावि परिणामों का भोक्ता होता है । जैन कर्म-सिद्धांत यह भी मानकर चलता है कि यदि जीव अपने किये हुए कर्मों के फल का भोग वर्तमान जीवन में नहीं कर पाता है तो उसे अपने कर्मों के फलभोग हेतु भावी जन्म ग्रहण करना पड़ता है । इस प्रकार जैन कर्म-सिद्धांत के साथ पुनर्जन्म की अवधारणा भी जुड़ी हुई है। __ कर्म-सिद्धांत की उपर्युक्त मान्यताओं के उल्लेख आचारांग, सूत्र कृतांग, उत्तराध्ययन, स्थानांग, भगवती, प्रज्ञापना आदि में उपलब्ध है । आचारंग में स्पष्ट उल्लेख है कि - "कामभोगों में आसक्त जन कर्मों का संचय करते रहते हैं और इन कर्मों के फलस्वरूप वे पुनः पुनः जन्म धारण करते रहते है।" सूत्रकृतांग में कर्म और उसके फल के पारस्परिक सम्बन्ध को अभिव्यक्त करते हुए कहा गया है कि - "जो व्यक्ति जैसा कर्म करता हैं उसके अनुसार ही उसे उस जन्म या भावी जन्म में फल मिलता है।" ज्ञानधारा-3 मम १०८ मन साहित्य ज्ञानसत्र-3)
SR No.032451
Book TitleGyandhara 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Barvalia
PublisherSaurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
Publication Year2007
Total Pages214
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size27 MB
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