SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१०) निकाचित : कर्म-बंधन की प्रगाढ़ अवस्था निकाचित है । कर्म की इस अवस्था में न तो उसके स्थिति और अनुभाग को हीनाधिक किया जा सकता है, ने समय से पूर्व उसका उपभोग किया जा सकता है तथा न ही कर्म अपने अवान्तर भेदों में रूपान्तरित हो सकता है । इस दशा में कर्म का जिस रूप में बंधन होता है, उसे उसी रूप में भोगना पड़ता है, क्योंकि इसमें उत्कर्षण - अपकर्षण, उदीरणा और संक्रमण चारों का अभाव रहता है । इस प्रकार जैन कर्म-सिद्धांत में कर्म में फलविपाक की नियतता और अनियतता को सम्यक् प्रकार से समन्वित किया गया है तथा यह बताया गया है कि जैसे जैसे आत्मा कषायों से मुक्त होकर आध्यात्मिक विकास की दिशा में बढ़ती है, वह कर्म फल-विषयक नियतता को समाप्त करने में सक्षम होता जाता है । कर्म कितना बलवान होगा यह बात केवल कर्म के बल पर निर्भर नहीं है, अपितु आत्मा की पवित्रता पर भी निर्भर है । इन अवस्थाओं का चित्रण यह भी बताता है कि कर्मों का विपाक या उदय होना एक अलग स्थिति है तथा उससे नवीन कर्मों का बंध होना न होना एक अलग स्थिति है । कषाययुक्त आत्मा कर्मों के उदय में नवीन कर्मों का बंध करता है । इसके विपरीत कषायमुक्त आत्मा कर्मों के उदय में नवीन बंध नहीं करता, मात्र पूर्वबंध कर्मों की निर्जरा करता है । कर्मों की स्थिति : बंधे हुए कर्म जब तक अपना फल देने की स्थिति में रहते हैं, तब तक की काल मर्यादा ही कर्मों की स्थिति है । जैन कर्म - सिद्धांत के अनुसार प्रत्येक कर्म आत्मा के साथ एक निश्चित अवधि तक बंधा रहता है । तदुपरान्त वह पेड़ में पके फल की तरह अपना फल देकर जीव से अलग हो जाता है । जब तक कर्म अपना फल देने की सामर्थ्य रखते हैं तब तक ही कालमर्यादा ही उनकी स्थिति कहलाती है । जैन कर्मग्रंथो में विभिन्न कर्मों की पृथक्-पृथक् स्थितियाँ उदय में आने योग्यकाल बताई गई हैं । घाती - अघातीकर्म : आत्मा के साथ चिपकनेवाले कर्म पुद्गलों को दो भागों में बांटा गया है - घातीकर्म और अघातीकर्म । ज्ञानधारा-3 જૈન સાહિત્ય જ્ઞાનસત્ર-૩ १०७ ▬▬▬▬ ---- ---
SR No.032451
Book TitleGyandhara 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGunvant Barvalia
PublisherSaurashtra Kesari Pranguru Jain Philosophical and Literary Research Centre
Publication Year2007
Total Pages214
LanguageGujarati
ClassificationBook_Gujarati
File Size27 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy