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२७२. मा चिट्ठह मा जंपह, मा चिन्तह किं वि जेण होइ थिरो ।
अप्पा अप्पम्मि रओ, इणमेव परं हवे झाणं ॥१९॥
हे ध्याता ! तू न तो शरीर से कोई चेष्टा कर, न वाणी से कुछ बोल और न मन से कुछ चिन्तन कर, इस प्रकार त्रियोग का निरोध करने से तू स्थिर हो जाएगा-तेरी आत्मा आत्मरत हो जायेगी । यही परम ध्यान है ।
૨૭૨. હે ધ્યાની ! તું ત ો શરીરથી કોઈ ચેષ્ટા કરજે, ન તો
વાણીથી કશુંક બોલજે અને ન તો મતથી કંઈ વિચારજે, આ રીતે ત્રિયોગનો વિરોધ કરવાથી તે સ્થિર થઈ જઈશ -અર્થાત્ તારો આત્મા આત્મામાં લીન થઈ જશે. આ જ શ્રેષ્ઠ ધ્યાત છે.
272. Oh Meditator ! Don't make any attempt by
body nor utter any word by speech or think anything mentally. In this way, by controlling the trio, you would become steady, meaning thereby your soul will be engrossed with the soul and that is the best form of meditation.
२७३. न कसायसमुत्थेहि य, वहिज्जइ माणसेहिं दुक्खेहिं ।
ईसा-विसाय-सोगा-इएहिं झाणोवगयचित्तो ॥२०॥
जिसका चित्त इस प्रकार के ध्यान में लीन है, वह आत्मध्यानी पुरुष कषाय से उत्पन्न ईर्ष्या, विषाद, शोक आदि मानसिक दुःखों से बाधित नहीं होता ।
GLORY OF DETACHMENT
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