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Shri Sutrakritanga Sutram The statement in the Shri Sutrakritanga Sutram is correct because karmas or karmic particles coexist and intermingle with the regions of the jiva (living being). Therefore, from one perspective, karma is inseparable from the jiva. It is due to the results of karma that the atma (soul) goes to the gati (state of existence) of naraka (hell), tiryañca (animals and plants), manushya (human) and deva (celestial beings), and experiences happiness or suffering accordingly. In this way, the agency of niyati (destiny) and aniyati (non-destiny) is proven through logic and reasoning. Those who are solely fatalists, accepting only niyati as the doer, are to be known as devoid of proper intellect. Evam eke tu pavasthas, te bhuyah vipragalbhitah. Evam upadhvita santa, na te duhkhavimokshakah. (5) Translation: The fatalists, in the aforementioned manner, consider niyati alone as the doer of pleasure and pain - this is their arrogance and obstinate statement. Even though they engage in religious practices related to the afterlife, they are unable to attain liberation from suffering.
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________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् गया है वह सही है क्योंकि कर्म या कर्माणु जीव के प्रदेशों के साथ परस्पर घुलमिलकर रहते हैं । अतएव कर्म एक अपेक्षा से जीव से अपृथक् है । कर्म के ही फलस्वरूप आत्मा नरक गति, तिर्यञ्चगति, मनुष्यगति और देव गति आदि में जाती है । वहां अपनी-अपनी गति के अनुरूप सुख या दुःख का भोग करती है । इस प्रकार नियति और अनियति इन दोनों का कर्तापन युक्ति एवं तर्क से साबित होता है । जो नियतिवादी केवल नियति में ही कर्तृत्व को स्वीकार करते हैं वे निर्बुद्धिक-बुद्धि रहित हैं, ऐसा जानना चाहिये। एवमेगे उ पासत्था, ते भज्जो विप्पगब्भिआ । एवं उवद्विआ संता, ण ते दुक्खविमोक्खया ॥५॥ छाया - एवमेके तु पावस्था स्ते भूयो विप्रगल्भिताः । एवमुपस्थिताः सन्तो न ते दुःखविमोक्षकाः ॥ अनुवाद - नियतिवादी पूर्वोक्त रूप में एक मात्र नियति को ही सुख तथा दुःख का कर्ता मानते हैं, यह उनकी धृष्टता है-दुराग्रह पूर्ण कथन है । वे अपने मन्तव्य के अनुसार पारलौकिक-धर्म तप आदि से सम्बद्ध क्रिया में संलग्न होकर भी दुःख से छुटकारा नहीं पा सकते ।। टीका - तदेवं युक्त्या नियतिवादं दुषियित्वा तद्वादिनामपायदर्शनायाह- एवमिति पूर्वाऽभ्युपगमसंसूचकः, सर्वस्मिन्नपि वस्तुनि नियतानियते सत्येके नियतिमेवाऽवश्यम्भाव्येव कालेश्वरादेर्निराकरणेन निर्हेतुकतया नियतिवादमाश्रिताः । तुरवधारणे, तएवनान्ये, किं विशिष्टाः पुनस्त इति दर्शयति-युक्तिकदम्बकाद्वहिस्तिष्ठन्तीति पार्श्वस्थाः परलोक क्रिया पार्श्वस्था वा, नियतिपक्षसमाश्रयणात्परलोक क्रियावैयर्थ्य, यदि वा-पाश इव पाश:-कर्मबन्धनं, तच्चेह युक्तिविकलनियतिवादप्ररूपणं तत्र स्थिताः पाशस्थाः । अन्येऽप्येकान्तवादिनः कालेश्वरादिकारणिकाः पार्श्वस्थाः पाशस्था वा द्रष्टव्या इत्यादि ते पुनर्नियतिवादमाश्रित्याऽपि, भूयो विविधं विशेषेण वा प्रगल्भिता धाष्टयों पगता परलोक साधिकाषु क्रियाषुप्रवर्तन्ते धाष्ा श्रयणं तु तेषां नियतिवादाश्रयणे सत्येव पुनरपि तत्प्रतिपन्थिनीषु क्रियासु प्रवर्तनादिति। ते पुनरेवमप्युपस्थिताः परलोकसाधिकासु क्रियासु प्रवत्ता अपि सन्तो नात्मदुःखविमोक्षकाः । असम्यक् प्रवृत्तत्वान्नात्मानं दुःखाद्विमोचयन्ति ]गता नियतिवादिनः ॥५॥ __टीकार्थ - सूत्रकार युक्ति द्वारा नियतिवाद को सदोष सिद्ध करते हुए उनकी विनाशोन्मुखता का दिग्दर्शन कराते हैं-प्रस्तुत गाथा में आया हुआ-'एवं' शब्द पहले वर्णित नियतिवादी सिद्धान्त की ओर इंगित करता है। वे सभी पदार्थ-वस्तुएं नियत एवं अनियत दोनों प्रकार की होती हैं किन्तु कई पुरुष ऐसे हैं जो काल, ईश्वर आदि को अस्वीकार कर केवल नियति-अवश्यंभाविता या होनहार में ही किसी कारण के बिना कर्ता रूप में स्वीकार करते हैं । यहां 'तु' शब्द अवधारण, निश्चितता या जोर देने के अर्थ में है । इसका आशय यह होता है कि नियतिवाद में आस्था रखने वाले उन लोगों का ही ऐसा मन्तव्य है । अन्यों का नहीं । वे नियतिवादी किस प्रकार के होते हैं. इसका स्पष्टीकरण करते हुए आगमकार प्रतिपादित करते हैं कि वे नियतिवादी पार्श्वस्थ हैं । पार्श्वस्थ उन्हें कहा जाता है जो युक्तिकदम्बक-युक्तियों के समूह से बाहर या एक तरफ रहता है-युक्तियों को स्वीकार नहीं करता अथवा एक अर्थ यह भी है कि वे नियतिवादी पारलौकिक धार्मिक क्रिया से बहिर्भूत रहते हैं क्योंकि वे तो नियति में ही सब का कर्तृत्व स्वीकार करते हैं । ऐसा मानने पर उनकी पारलोक विषयक -64
SR No.032440
Book TitleSutrakritang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
PublisherShwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size21 MB
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