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The Sutra of the Sri Sutra Kritanga says: In this way, a Niggrantha, who is a single-minded Buddha, with his stream of karma cut off, well-controlled, well-balanced, and well-established in equanimity, having attained the knowledge of the Self, is a scholar who has cut off both types of streams of karma, and is not seeking worship, respect, or gain. He is a devotee of Dharma, a knower of Dharma, and has attained the path of liberation. He walks with equanimity, is subdued, is a follower of the path of virtue, and has abandoned attachment to the body. He is called a Niggrantha. Know this to be true, for I am the savior from fear. Thus ends the sixteenth chapter of the Gatha. Thus ends the first chapter of the Suyagandha.
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् एत्थवि णिग्गंथे एगे एगविऊ बुद्धे संछिन्नसोए सुसंजते सुसमिते सुसामाइए आयवायपत्ते विउ दुहओवि सोयपलिच्छिन्ने णो पूयासक्कार लाभट्ठी धम्मट्ठी धम्मविऊ णियागपडिवन्ने समि (म) यं चरे दंते दविए वोसट्ठकाए निग्गंथेत्ति वच्चे से एवमेव जाणह जमहं भयं तारो तिबेमि॥ इति सोलसमं गाहानामज्झयणं समत्तं ।।पढ़मो सुअक्खंधो समत्तो ॥१॥ छाया - अत्राऽपि निग्रन्थः एकः एकविद् बुद्धः संछिन्नस्रोताः सुसंयतः सुसमितः सुसामायिकः
आत्मवादप्राप्तः विद्वान् द्विधाऽपि स्रोतः परिच्छिन्नः नो पूजा सत्कार लाभार्थी धर्मविद् नियागप्रतिपन्नः समतां चरेद् दान्तः द्रव्यः व्युत्सृष्टकायः निग्रन्थ इति वाच्यः तदेवमेव
जानीत यदहं भयत्रातारः ॥इति ब्रवीमि॥ अनुवाद - यहां पूर्वोक्त भिक्षु के गुण निर्ग्रन्थ में अपेक्षित है-उनके अतिरिक्त अन्य गुण इस प्रकार हैं, जो एक-एकाकी अकेला या रागद्वेष रहित है, एकविद्-आत्मा अकेली ही जाती है, वह जानता है । बुद्धजो वस्तु स्वरूप का परिज्ञाता है, संछिन्नस्रोत-जिसने आश्रवों के स्रोत-द्वार, अवरुद्ध कर दिये हैं, सुसंयतश्रेष्ठ, उत्तम, संयमयुक्त है, सुसमित-जो पांच समिति युक्त है, सुसामायक-जो समत्व भाव संवलित है, आत्मवाद प्राप्त-आत्मा के सत्यस्वरूप का ज्ञाता है, विद्वान्-समस्त पदार्थों के स्वभाव का दृष्टा है, जिसमें द्रव्य एवं भाव दोनों ही प्रकार के स्रोत-कर्म आगमन के द्वारों का उच्छेद कर दिया है, जो सम्मान सत्कार एवं लाभ का इच्छुक नहीं है । वरन् एकमात्र धर्मार्थी-धर्म का अर्थी, इच्छुक है, धर्मविद्-धर्म के स्वरूप को जानता है, नियाग प्रतिपन्न-जो मोक्ष के मार्ग को प्राप्त कर चुका है, जो समभाव से विचरणशील हैं, जो दांत-इन्द्रिय विजेता द्रव्यभूत-युक्ति मार्गानुयायी, व्युत्सृष्टकाय-दैहिक आसक्ति से अतीत होता है । वह निर्ग्रन्थ पद से वाच्य है । तुम इसे इसी प्रकार जानो, आत्मसात् करो, जो मैंने कहा है क्योंकि वह भयत्राता-सांसारिक प्राणियो को जन्म मरण के भय से रक्षा करने वाले सर्वज्ञ तीर्थंकर अन्यथा भाषण नहीं करते । मैं ऐसा कहता हूं।
टीका - ‘एको रागद्वेषरहिततया ओजाः, यदिवाऽस्मिन् संसारचक्रवाले पर्यटन्नसुमान् स्वकृतसुख दुःखफलभाक्त्वेनैकस्यैव परलोकगमनतया सदैकक एव भवति । तत्रोद्यतविहारी द्रव्य तोऽप्येक को भावतोऽपि, गच्छान्तर्गतस्तु कारणिको द्रव्यतो भाज्यो भावतस्त्वेकक एव भवति । तथैवमेवात्मानं परलोकगामिनं वेत्तीत्येकवित्, मे कश्चिदुःखपरित्राणकारी सहायोऽरूपीत्येवमेव वित् यदिवैकान्तविद्-एकान्तेन विदित संसार स्वभावतया मौनीन्द्रमेव शासनं तथ्यं नान्यदित्येवं वेत्तीत्येकान्तवित्, अथवैको-मोक्षः संयमो वा तं वेत्तीति, तथा बुद्धः -अवगततत्त्वःसम्यक्छिन्नानि अपनीतानि भावस्रोतांसिसंवृतत्वात्कर्माश्रवद्वराणि येन स तथा,सुष्ठुसंयतःकूर्मवत्संयतगात्रो निरर्थककायक्रियारहितः सुसंयतः, तथा सुष्ठु पंचभिः समितिभिः सम्यगित:-प्राप्तो ज्ञानादिकं मोक्षमार्गमसौ सुसमितः, तथा सुष्ठु समभावतया सामायिकं-समशत्रुमित्रभावो यस्य स सुसामायिकः । तथाऽऽत्मनः-उपयोग लक्षणस्य जीवस्यासंख्येय-प्रदेशात्मकस्य संकोचविकाशभाजःस्वकृतफलभुजःप्रत्येक साधारणशरीरतया व्यवस्थितस्य द्रव्यपर्यायतया नित्यानित्याद्यनन्त धर्मात्मक स्य वा वाद आत्मवा दस्तं प्राप्त आत्मवादप्राप्तः, सम्यग्यथावस्थितात्मस्वतत्त्ववेदीत्यर्थः । तथा 'विद्वान' अवगतसर्वपदार्थस्वभावी न व्यत्ययेन पदार्थानवच्छति ।
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