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A student should not engage in activities that lead to passions and other such things. Thus, a wise person who has resided in a guru's abode, and who has attained knowledge in matters of place, sleep, posture, assembly, and secrecy, and who has renounced all carelessness, will, through the guru's teachings, somehow overcome doubt and mental disturbance. Or, if he thinks, "This burden of the five great vows is too heavy, how can I possibly bear it to the end?" he will, through the guru's grace, overcome such doubt. Or, if he experiences any mental disturbance, he will, while residing in the guru's abode, overcome it completely and will also be able to help others overcome their disturbances. ||6||
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________________ ग्रन्थनामकं अध्ययन कषायादिकं न विदध्यात् । तदेवं गुरुकुलवासात् स्थानशयनासनसमितिगुप्तिष्वागतप्रज्ञः प्रतिषिद्धसर्वप्रमादः सन् गुरोरुपदेशादेव कथंकथमपि विचिकित्सां-चित्तविप्लुतिरुपां (वि) तीर्णः-अतिक्रान्तो भवति, यदिवा मद्गृहीतोऽयं पञ्चमहाव्रतभारोऽतिदुर्वहः, कथं कथमप्यन्तं गच्छेद् ? इत्येवंभूतां विचिकित्सां गुरुप्रसादाद्वितीर्णो भवति, अथवा यां काञ्चिच्चित्तविप्लुतिं देशसर्वगतां तां कृत्सनां गुर्वन्तिके वसन् वितीर्णो भवति अन्येषामपि तदपनयनसमर्थः स्यादिति ॥६॥ टीकार्थ – ईर्याआदि समितियों से उपेत-युक्त साधु को जो करना चाहिये उसका दिग्दर्शन कराते हुए कहते हैं । वीणा तथा बांसुरी आदि के मधुर, कर्ण प्रिय शब्दों का अथवा भैरव-भयावह, कर्णकटु. शब्दों का श्रवण कर साधु उनमें आश्रव न करें । वस्तु को शोभन और अशोभन रूप से जो ग्रहण करता है उसे आश्रव कहा जाता है । आश्रव का न होना अनाश्रव है । कानों में पड़े हुए अनुकूल और प्रतिकूल शब्दों में वह अनाव भाव से रहे । मध्यस्थ तथा राग-द्वेष से रहित होकर संयम के अनुष्ठान में संलग्न रहे । श्रेष्ठ साधु निद्रा प्रमाद न करे । यहां शब्दाश्रव का निरोध बतलाकर विषय प्रमाद का प्रतिषेध किया है तथा निद्रा के निरोध का कथन कर निद्रामूलक प्रमाद का प्रतिषेध किया है । यहां आये हुए 'च' शब्द से विकथा और कषाय आदि प्रमाद न करने का उपदेश दिया है । इस प्रकार साधु गुरुकुल में वास करने से स्थान, शयन, आसन समिति और गुप्ति-इनमें आगतप्रज्ञः-विवेकशील रहता है तथा समस्त प्रमादों का प्रतिषेध-परित्याग करता हुआ गुरु के उपदेश से विचिकित्सा-चित्त विलप्ति या शंका को अतिक्रान्त कर जाता है-लांघ जाता है, अथवा यदि साधु के मन में यह चिन्ता हो कि पांच महाव्रतों का यह दवह भार. किसी तरह-बडी कठिनाई से पार लगाया जा सके तो अच्छा हो । इस प्रकार की शंका को वह गुरु कृपा से वितिरण कर जाता है-लांघ जाता है अथवा यदि कुछ शंका उत्पन्न होती है तो वह उसे स्वयं सर्वथा पार कर जाता है एवं दूसरों की शंका का भी अपनयन करने में सक्षम होता है। डहरेण वुड्ढेणऽणुसासिए उ, रातिणिएणावि समव्वएणं । सम्मं तयं थिरतो णाभिगच्छे, णिजंतए वावि अपारए से ॥७॥ छाया - दहरेण वृद्धनानुशासिस्तु रत्नाधिकेनापि समवयसा । सम्यक्तया स्थिरतो नाभिगच्छेन्नीयमानो वाप्यपारगः सः ॥ अनुवाद - यदि कभी प्रमादवश स्खलना-भूल हो जाय तो अपने से बड़े या छोटे अथवा दीक्षा में बड़े या अपने समवयस्क-समान उम्र वाले साधु द्वारा अनुशासित किया जाय-त्रुटि सुधारने हेतु कहा जाय तो साधु उसे न मानकर कुपित होता है, वह जगत के प्रवाह में बहता रहता है । संसार-सागर को पार नहीं कर पाता। टीका - किञ्चान्यत-स गुर्वन्तिके निवसन् क्वचित्प्रमादस्खलितः सन् वयः पर्यायाभ्यां क्षुल्लकेन-लघुना, 'चोदितः' प्रमादाचरणं प्रति निषिद्धः, तथा वृद्धेन वा' वयोऽधिकेन श्रुताधिकेन वा 'अनुशासितः' अभिहितः, तद्यथाभवद्विधानामिदमीद्दक् प्रमादाचरणमासेवितुमयुक्तं, तथा रत्नाधिकेन वा' प्रवज्यापर्याया-धिकेनश्रुताधिकेन या समवयसा, वा 'अनुशासितः' प्रमादस्खलितापचरणं प्रति चोदितः कुप्यति तथा अहमप्यनेन द्रमक प्रायेणोत्तम कुलप्रसूतः सर्वजन संमत इत्येवं चोदित इत्येवमनुशास्यमानो, न मिथ्यादुष्कतं ददाति न सम्यगुत्थानेनोत्तिष्ठति नापि तदनुशासनं सम्यक् -(573)
SR No.032440
Book TitleSutrakritang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
PublisherShwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size21 MB
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