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The essence of the path of liberation for a being is to understand that all beings are dependent on earth, water, fire, and air. Each being has a distinct body, but plants are considered to have a common body, and therefore, their individual bodies are not distinct. This is why the term "beings" is used in this verse. The subtle body of a plant is of the form of a "nigoda," while the "badara" plant is both common and uncommon. To explain the different types of uncommon bodies, the verse mentions examples like grass, darbha, virana, trees like mango and ashoka, and seeds like rice and wheat. All these are considered to be beings with plant bodies. This understanding refutes the views of Buddhists and others. The fact that these beings, including earth, water, fire, and air, are indeed living beings is explained in detail in the first chapter of the Acharanga Sutra, titled "Shastraparijna." Therefore, it is not elaborated upon here.
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________________ श्री मार्गाध्ययनं शरीरिणोऽवगन्तव्याः एत एव पृथिव्यप्तेजोवायु समाश्रिताः सत्त्वाः प्रत्येकशरीरिणः, वक्ष्यमाणवनस्पतेस्तु साधारण शरीरत्वेनापृथक्त्वमप्यस्तीत्यस्यार्थस्य दर्शनाय पुनः पृथक्सत्वग्रहणमिति । वनस्पतिकायस्तु यः सूक्ष्मः स सर्वोऽपि निगोदरूपःसाधारणो बादरस्तु साधारणोऽसाधारणश्चेति, तत्र प्रत्येक शरीरणिोऽसाधारणस्य कतिचिद्भेदान्निर्दिदिक्षुराहतत्र तृणानि-दर्भ वीरणादीनि वृक्षाः-चूताशोकादयः सह बीजैः-शालिगोधूमादिभिर्वर्तन्त इति सबीजकाः, एते सर्वेऽपि वनस्पतिकायाः सत्त्वा अवगन्तव्याः अनेन च बौद्धादिमतनिरासः कृतोऽवगन्तव्य इति । एतेषा च पृथिव्यादीनां जीवानां जीवत्वेन प्रसिद्धिस्वरूप निरूपणमाचारे प्रथमाध्ययने शस्त्रपरिज्ञाख्ये न्यक्षेण प्रतिपादितमिति नेहप्रतन्यते ॥७॥ टीकार्थ – चारित्र मार्ग का हेतु प्राणातिपात से विरमण-हिंसा से निवृत्त होना है । जीवों के संबंध में ज्ञान होने पर ही ऐसा हो सकता है । अतः शास्त्रकार जीवों का स्वरूप बताने हेतु कहते हैं-'पृथ्वी स्वयं जीव है, पृथ्वी में आश्रित अन्य अनेक जीव हैं, उन में से प्रत्येक जीव का शरीर भिन्न भिन्न है । इससे यों समझना चाहिये कि इनमें भिन्न भिन्न शरीर युक्त जीव है । इसी भांति पानी भी जीव है, अग्नि भी जीव है तथा वायु भी जीव है । इन चार महाभूतों में समाश्रित-उनमें विद्यमान पृथक् पृथक् शरीर युक्त जीव हैं । यह अवगत करना चाहिये । यों पृथ्वी, पानी, अग्नि और वायु के आश्रयवासी भिन्न भिन्न देहयुक्त जीव विद्यमान है । वनस्पति जो आगे वक्ष्यमाण-बताई जाने वाली है, साधारण शरीर के नाम से अभिहित है । अतः उसके जीव पृथक् पृथक् नहीं भी होते हैं । इस बात का संकेत देने हेतु प्रस्तुत गाथा में "सत्त्व" शब्द का प्रयोग हुआ है । जो सुक्ष्म बनस्पतिकाय है वह निगोध रूप है । बादर बनस्पति साधारण एवं असाधारण दो भेदों में विभक्त है जिनमें प्रत्येक शरीरी-पृथक् पृथक् शरीर युक्त असाधारण बनस्पति के कई भेद बताये गये हैं । जैसे तृण-डाभ या कुश तथा वीरण आदि, वृक्ष-आम्र, अशोक आदि तथा बीज-शालि-चांवल विशेष तथा गेहूं आदि ये सब बनस्पति काय के जीव है । ऐसा अवगतकरना चाहिये । इस निरूपण से बौद्ध आदि मतों का निराकरण या खण्डन जानना चाहिये । इन पृथ्वी आदि जीवों की जीवत्व के रूप में प्रसिद्धि तथा इनके स्वरूप का निरूपण आचारांग सूत्र के शास्त्रपरिज्ञा नामक प्रथम अध्ययन में स्पष्ट रूप में प्रतिपादित किया गयाहै। अत: यहां विस्तार पूर्वक वर्णन नहीं किया जा रहा है। अहावरा तसा पाणा, एवं छक्काय आहिया । एतावए जीवकाए, णावरे कोइ विजई ॥८॥ छाया - अथाऽपरे त्रसाः प्राणाः, एवं षटकाया आख्याताः । एतावान् जीवकायः नापरः कश्चिद्विद्यते ॥ अनुवाद - पहले बताए गये पांच तथा छडे त्रसकाय युक्त जीव होते हैं । यों जीवों के छः भेद बतलाये गये हैं । इस प्रकार जीव इतने ही है, इनसे भिन्न कोई अन्य जीव नहीं है। टीका - षष्ठजीवनिकायप्रतिपादनायाह-तत्र पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतय एकेन्द्रिया:सूक्ष्मबादरपर्याप्तापर्याप्तकभेदेन प्रत्येकं चतुर्विधाः, 'अथ' अनन्तरम् 'अपरे' अन्ये त्रस्यन्तीति त्रसा:-द्वित्रिचतुष्पञ्चेन्द्रियाः कृमिपिपीलिकाभ्रमरमनुष्यादयः, तत्र द्वित्रिचतुरिन्द्रिया: प्रत्येकं पर्याप्तकापर्याप्तक भेदात्षड्विधाः, पंचेन्द्रियास्तु संश्यसंज्ञिपर्याप्तकापर्याप्त (471)
SR No.032440
Book TitleSutrakritang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
PublisherShwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size21 MB
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