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English Translation (preserving Jain terms):
The Shri Sutrakritanga Sutra states: "One should not desire the Aahaarakanda (food prepared for the ascetic), nor should one praise those who desire it. One should perform austerities, emaciate the body, and abandon grief without being attached to it."
Explanation:
- The ascetic should not desire the Aahaarakanda, i.e., the food prepared for him.
- One who desires such food should not be praised or associated with.
- The ascetic should perform Dhuni (austerities) to emaciate the body for the purpose of Nirjara (shedding of karmic matter).
- He should abandon grief without being attached to it, i.e., remain equanimous.
The text further states: "One should aspire for Ekatva (singleness, oneness), for that is the true Pramoksha (liberation). This Pramoksha is indeed the best, for one who is free from anger, steadfast in truth, and engaged in austerities."
Explanation:
- The ascetic should aspire for the state of Ekatva, i.e., oneness, non-attachment.
- This state of Ekatva is the true Pramoksha, the highest liberation.
- One who is free from anger (Akrodhana), steadfast in truth (Satyarata), and engaged in austerities (Tapasvi) is the best.
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् आहाकडं वा ण णिकामएजा, णिकामयंते य ण संधवेजा। धुणे उरालं अणुवेहमाणे, चिच्चा ण सोयं अणवेक्खमाणो ॥११॥ छाया - आधाकृतं वा न निकामयेत्, निकामयतश्च न संस्तुयात् ।
धुनीयादुदारमनुप्रेक्षमाणः, त्यक्त्वा च शोकमनपेक्षमाणः ॥ अनुवाद - साधु आधा कर्म-औद्देशिक आहार की कामना न करे जो वैसी कामना करता है, उसके साथ संस्तव-परिचय न करे, निर्जरा हेतु शरीर का धुनन करे-तपश्चरण द्वारा उसे कृश बनाये। देह की परवाह न करता हुआ शोकातीत बन संयम का परिपालन करे ।
टीका - अपिच-साधूनाधाय कृतमाधाकृतमौदेशिकमाधाकर्मेत्यर्थः, तदेवम्भूतमाहार जातं निश्चयेनैव 'न कामयेत्' नाभिलषेत् तथा विधाहारादिकं च 'निकामयत:' निश्चयेनाभिलषतः पार्श्वस्थादींस्तत्सम्पर्कदानप्रतिग्रहसंवाससम्भाषणादिभिः न संस्थापयेत-नोपवृंहयेत् तैर्वा साधु संस्तवं न कुर्यादिति, किञ्च-'उरालं' ति औदारिकं शरीरं विकृष्टतपसा कर्मनिर्जरामनुपेक्षमाणो धुनीयात्' कृशं कुर्यात्, यदिवा 'उरालं'ति बहुजन्मान्तरसञ्चितं कर्म तदुदारं-मोक्षमनुपेक्षमाणो ‘धुनीयाद्' अपनयेत्, तस्मिंश्च तपसा धूयमाने कृशीभवति शरीरके कदाचित् शोकः स्यात् तं त्यक्त्वा याचितोपकरणवदनुप्रेक्षमाणः शरीरकं धुनीयादिति सम्बन्धः ॥११॥
टीकार्थ - जो आहार साधु के लिये तैयार किया जाता है, उसे आधा कर्म कहेतहैं । ऐसे आहार की साधु कदापि कामना-अभिलाषा न करे । पार्श्वस्थ आदि असम्यक्त्वी मतवादी जो वैसै आहार की कामना अभिप्सा करते हैं, उनके साथ दान-देना, प्रतिग्रह-लेना, संवास-साथ रहना, संभाषण-वार्तालाप करना इत्यादि के रूप में साधु परिचय न करे, सम्पर्क न जोड़े । कर्म निर्जरण हेतु विकृष्ट-घोर तप द्वारा शरीर का धुनन करे, उसे कृश बनाये । अथवा साधु अनेक जन्म जन्मान्तरों से संचित कर्म का मोक्ष प्राप्ति के अभिप्राय से धुनन करे, नाश करे । तपश्चरण द्वारा कर्म क्षय करते हुए शरीर की कृशता हो जाने से साधु के मन में यदि उद्वेग हो तो वह याचित उपकरण की तरह-मांगकर लाई हुई वस्तु के समान जानकर उद्विग्न न बने वरन् शरीर के मैल के समान कर्मों का धुनन-अपगम या नाश करे।
एगत्तमेयं अभिपत्थएज्जा, एवं पमोक्खो न मुसंति पासं । एसप्पमोक्खो अमुसे वरेवि, अकोहणे सच्चरते तवस्सी ॥१२॥ छाया - एकत्वमेतदभिप्रार्थयेदेवं प्रमोक्षो न मृषेति पश्य ।
एष प्रमोक्षोऽमृषा वरोऽपि, अक्रोधनः सत्यरतस्तपस्वी ॥ अनुवाद - साधु एकत्त्व की भावना अभिप्रार्थित करे-एकत्व भावना का अनुचिन्तन करे । उसी से प्रमोक्ष-अनासक्तता प्राप्त होती है । एकत्व की भावना ही प्रमोक्ष-प्रकृष्ट या उत्तम मोक्ष है । जो इससे भावित होकर क्रोध नहीं करता, सत्य में तत्पर रहता है, तपश्चरण करता है, वही श्रेष्ठ है ।
टीका-किञ्चापेक्षेतेत्याह-एकत्वम्-असहायत्वमभिप्रार्थयेदएकत्वाध्यवसायी स्यात्, तथाहि-जन्मजरामरणरोग शोकाकुले संसारे स्वकृतकर्मणा विलुप्यमानानामसुमतां न कश्चित्त्राणसमर्थः सहायः स्यात् तथा चोक्तम् -
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