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English translation preserving Jain terms: The person who is attached to the Asakta (sensual pleasures) of women, who is immersed in their speech, laughter, and bodily limbs like a child devoid of discrimination between right and wrong, and who, due to this attachment, cannot obtain them without wealth, accumulates sin by any means to acquire that wealth-property which is the means (for obtaining them). Such a person, being afflicted with sorrow in the endeavor of self-restraint (Samyama-udyoga) of the Parshvasthavasanna-kushila (those who have fallen from the path while living near the ascetic), indulges in the unrighteous conduct, becomes lax in righteous conduct, and thus sinks in the mire of the worldly existence. The one who is driven by hatred (Vairanugiddha) accumulates karmic matter, and upon death, he attains the difficult-to-cross (Durgam) state of suffering (in hell, etc.). Therefore, the wise (Medhavi) person, after carefully examining the Dharma, should practice (Chare) as a Muni (ascetic), completely freed (Vippamukte) from all attachments.
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________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् निमन्त्रणादीनि वा सरति-चरति तच्छीलश्च स तथा, एवम्भूतः पार्श्वस्थावसन्नकुशीलानां संयमोद्योगे विषण्णानां विषण्णभावभेषते, सदनुष्ठान विषण्णतया संसारपङ्कावसन्नो भवतीतियावत्, अपिच 'स्त्रीषु' रमणीषु 'आसक्तः' अध्युपपन्नः पृथक् पृथक् तद्भाषितहसितदिव्वोकशरीरावयवेष्विति, बालवद् 'बाल' अज्ञः सदसद्विवेकविकलः, तदवसक्ततया च नान्यथाद्रव्यमन्तरेण तत्सम्प्राप्तिर्भवतीत्यतो येन केनचिदुपायेन तदुपायभूतं परिग्रहमेव प्रकर्षेण कुर्वाणः पापं कर्म समुच्चिनोतीति ॥८॥ टीकार्थ - जो आहार-भोज्य पदार्थ आदि साधु को उदिष्ट कर निष्पादित किया जाता है उसे आधा कर्म कहते हैं । उस आधा कर्म-आहार अथवा उपकरण-उपयोगी सामग्री की जो अत्यधिक अभ्यर्थना-आकांक्षा करता है उसे निकाममीण कहा जाता है । जो आधा कर्म आहार आदि के निमित्त आमन्त्रण-आभूत किया जानाबुलाया जाना आदि की अत्यधिक इच्छा लिये रहता है वह पुरुष संयम के उद्योग में-पालन में विषादयुक्त पार्श्वस्थ अवसन्न आदि कुशील अनाचरणयुक्त जनों के धर्म का-असत् अनुष्ठान का सेवन करता है । वह सत् अनुष्ठान में-संयम के आचरण में शिथिल होकर संसार के कीचड़ में फंस जाता है और वह स्त्रियों में आसक्त होता हुआ उनकी बोली-हंसी और हाव भाव तथा उनके शरीर के अंगों में अनुरक्त होकर बालक की ज्यों सत् असत् के विवेक से शून्य हो जाता है । ___धन के बिना स्त्रियों की प्राप्ति नहीं होती । इसलिये वह जिस किसी प्रकार से परिग्रह-धन का संचय करता है वह पुरुष वैसा करता हुआ पाप का ही संचय करता है । वेराणुगिद्धे णिचयं करेति, इओ चुते स इहमट्ठदुग्गं । तम्हा उ मेधाविसमिक्ख धम्मं, चरे मुणी सव्वउ विप्पमुक्के ॥९॥ छाया - वैरानुगद्धो निचयं करोति, इतश्च्युतः स इद मर्थदुर्गम् । तस्मात्तु मेधावी समीक्ष्य धर्म चरेन्मुनिः सर्वतोविप्रमुक्तः ॥ अनुवाद - जो पुरुष प्राणियों के साथ वैर शत्रुभाव रखता है वह पाप की वृद्धि करता है । मरकर वह नरक आदि की यातनाएं भोगता है । अतः मेधावी-प्रज्ञाशील-विवेकशील मुनि धर्म का समीक्षण कर सब प्रकार के अनर्थों से पृथक रहे । संयम का पालन करे। टीका - येन केन कर्मणा-परोपतापरूपेण वैरमनुबध्यते जन्मान्तर शतानुयायि भवति तत्र गृद्धो वैरानुगृद्धः, पाठान्तरं वा 'आरंभसत्तो' त्ति आरम्भे सावद्यानुष्ठानरूपे सक्तो-लग्नो निरनुकम्पो ‘निचयं' द्रव्योपचयं तन्निमित्तापादित कर्म निचयं वा 'करोति' उपादत्ते 'स' एवम्भूत उपात्तवैरः कृतकर्मोपचय 'इत:' अस्मात्स्थानात्. 'च्युतो' जन्मान्तरं गतः सन् दुःखयतीति दुःखं नरकादियातनास्थानमर्थतः-परमार्थतो 'दुर्ग-विषमं दुरुत्तरमुपैति, यत एवं तत्तस्मात् 'मेघावी' विवेकी मर्यादावान् वा सम्पूर्णसमाधिगुणं जानानो 'धर्म' श्रुतचारित्राख्यं 'समीक्ष्य' आलोच्याङ्गीकृत्य 'मुनिः' साधुः 'सर्वतः' सबाह्याभ्यन्तरात्सङ्गात् 'विप्रमुक्तः' अपगतः संयमानुष्ठानं मुक्तिगमनै कहेतुभूतं 'चरेद्' अनुतिष्ठेत् स्त्र्यारम्भादि सङ्गाद्विप्रमुक्तोऽनिश्रितभावेन विहरेदितियावत् ॥९॥ टीकार्थ - जिन कमों के करने से प्राणियों को दुःख उत्पन्न होता है और उनके साथ सैंकड़ों जन्मों तक के लिये शत्रु भाव बनता है वैसे कर्म में जो आसक्त है अथवा 'आरम्भसत्तो' पाठान्तर के अनुसार जो (452
SR No.032440
Book TitleSutrakritang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
PublisherShwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size21 MB
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