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## The Sutra Kritanga Sutra
**Verse 6**
**Text:**
* श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
* मनसा वयसा चेव, कायसा चेव परमो वावि, दुहावि य
* आरओ
* छाया
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* अनुवाद असयंत-संयत रहित पुरुष मन द्वारा, वाणी द्वारा, शरीर द्वारा तथा यदि शरीर में सामर्थ्य न हो तो, मन-वचन द्वारा इस लोक एवं परलोक के निमित्त प्राणियों का हनन करते हैं । औरों द्वारा वैसा
* करवाते हैं ।
* टीका तदेतत्प्राण्युपमर्दनं मनसा वाचा कायेन कृतकारितानुमतिभिश्च 'अन्तशः ' कायेनाशक्तोऽपि तन्दुलमत्स्यवन्मनसैव पापानुष्ठानुमत्या कर्मबध्नातीति, तथा आरतः परतश्चेति लौकिकी वाचो युक्ति रित्येवं पर्यालोच्य माना ऐहिकामुष्मिकयो:‘द्विधापि' स्वयंकरणेन परकरणेन चासंयताजीवोपघातकारिण इत्यर्थः ॥६॥ साम्प्रतं जीवोपघात विपाकदर्शनार्थमाह
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* मनसा वचसा चैव कायेन चवान्तशः । आरतः परतोवाऽपि द्विधाऽपि चासंयताः ॥
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* अंतसो ।
* असंजया ॥ ६ ॥
* टीकार्थ – असंयत पुरुष मन से, वचन से, तथा काया से कृत-स्वयं करना, कारित- औरों से कराना तथा अनुमति-करते हुये का अनुमोदन करना, यों प्राणियों का उपमर्दन - नाश करते हैं । शरीर का सामर्थ्य न रहने पर तन्दूल मत्स्य की ज्यों मन द्वारा ही अशुभ कर्म बाँध लेते हैं । यह केवल लौकिक शास्त्रों की युक्ति या प्रतिपत्ति है । ऐसा पर्यालोचित कर-विचार कर वे असंयत पुरुष इस लोक और परलोक के निमित्त स्वयं प्राणियों का घात करते हैं, औरों से करवाते हैं । इस प्रकार ये जीवोपघातकारी प्राणियों का उपघात करने वाले हैं । अब जीवोपघात -जीव हिंसा करने के फल का दिग्दर्शन कराने हेतु सूत्रकार कहते हैं 1
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* वनेराइं कुव्वई वेरी, तओ वेरेहिं रज्जती । पावोवगा य आरंभा, दुक्खफासा य अंतसो ॥७॥
* छाया वैराणि करोति वैरी, ततो वैरै रज्यते ।
* पापोपगा आरम्भाः, दुःखस्पर्शा अन्तशः ॥
* अनुवाद - जो पुरुष किसी जीव की हिंसा करता है, वह उसके साथ अनेक जन्मों के लिए शत्रुता बाँधता है । आरम्भ-जीवों की हिंसा पाप उत्पन्न करती है और उसका फल दुःखमय होता है ।
* टीका वैरमस्यास्तीति वैरी, स जीवोपमर्द्दकारी जन्मशतानुबन्धीनि वैराणि करोति, ततोऽपि च वैरादपैरवैरैरनुरज्यते-संबध्यते, वैरपरम्परानुषङ्गीभवतीत्यर्थः किमिति ?, यथः पापं उप-सामीप्येन गच्छन्तीति पापोपगाः, कएते ? आरम्भाः' सावद्यानुष्ठानरूपाः 'अन्तशो 'विपाककाले दुःखं स्पृशन्तीति दुःख स्पर्शा - असातोदय विपाकिनो भवन्तीति ॥७॥ किञ्चान्यत्
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* टीकार्थ - जिसके वैर होता है या जो वैरयुक्त होता है, उसे वैरी कहा जाता है । वैसा जीवों का उपमर्दन करने वाला पुरुष सैकड़ों जन्मों तक के लिए अनुबद्ध रहने वाला वैर-शत्रुभाव उत्पन्न करता है । उस एक वैर-शत्रुत्व के कारण वह अनेक वैरों में सम्बद्ध-परिग्रहित हो जाता है अर्थात् वह वैर एक परम्परा पकड़
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**Translation:**
**The Sutra Kritanga Sutra**
**Verse 6**
**Text:**
* The Sutra Kritanga Sutra
* By mind, speech, and body, or even by mind and speech if the body is unable, the unrestrained person destroys beings in this world and the next. They also cause others to do so.
* Commentary: This destruction of beings by mind, speech, and body, by doing, causing to do, and approving, is called "Antasha." Even if the body is unable, like a grain of rice and a fish, they bind karma by the mind alone, by approving of evil deeds. Thus, it is said in the worldly scriptures that they are "Arahant" and "Parata." Considering this, the unrestrained person, by doing it themselves and causing others to do it, is a destroyer of beings in both this world and the next. This is the meaning. ||6|| Now, to show the result of destroying beings, the Sutra-maker says:
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* By mind, speech, and body, or even by mind and speech if the body is unable, the unrestrained person destroys beings in this world and the next. They also cause others to do so.
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* Antasha.
* Unrestrained. ||6||
* Commentary: The unrestrained person destroys beings by mind, speech, and body, by doing it themselves, causing others to do it, and approving of it. Even if the body is unable, like a grain of rice and a fish, they bind karma by the mind alone, by approving of evil deeds. This is just a worldly scripture's logic or understanding. Considering this, the unrestrained person, by doing it themselves and causing others to do it, is a destroyer of beings in both this world and the next. Thus, they are destroyers of beings. Now, to show the result of destroying beings, the Sutra-maker says:
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* The enemy creates enmity, and then is ruled by enmity. The beginnings of evil deeds are the cause of suffering, and they touch within. ||