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The **Shri Sutra Kritanga Sutra** teaches that the only valid proof is **direct perception (pratyaksha)**. Other proofs accepted by other philosophies, such as **inference (anumana)**, **scriptural authority (agama)**, and **comparison (upamana)**, are not valid because they do not involve direct contact between the object of knowledge (pramaya) and the sense organ. This lack of direct contact leaves room for error, leading to a distorted understanding of the object of knowledge, making it unreliable.
It is like a blind man walking on a rough and uneven path, relying only on touch. It is not impossible for him to fall. Similarly, those who rely on inference or other proofs to understand reality are prone to error. This applies to **agama** as well, as it also lacks direct contact between the object of knowledge and the sense organ. Therefore, only **direct perception** is a reliable source of knowledge.
According to this philosophy, the soul (atma) cannot be directly perceived by the senses. The consciousness (chaitanya) that we experience is a product of the five elements (panchamahabut) coming together. Just as the ingredients of wine produce its intoxicating effect when combined, consciousness is not a separate entity from the five elements. It is a function of them, just as the function of a pot is a result of the clay. Therefore, consciousness is not a separate entity from the five elements. It is a manifestation of them, just as bubbles appear on water.
Some may question the inclusion of space (akasha) as one of the five elements, as traditionally only earth, water, fire, and air are considered. The commentator clarifies that some Charvaka philosophers also consider space as an element, making the inclusion of five elements valid.
If there is no separate soul (atma) distinct from the five elements, then why do we say that a person has died? The commentator explains that consciousness is a manifestation of the five elements in the form of a body. When one of these elements, such as air or fire, is destroyed, we say that the person has died. This does not mean that a separate soul has left the body. It is simply a change in the combination of the five elements.
The commentator further clarifies that the five elements, even when combined to form a body, cannot produce consciousness. The word "adi" (meaning "etc.") used in conjunction with consciousness refers to qualities or actions like speech, movement, and walking, which are not produced by the five elements. This is the commentator's assertion. The word "adi" in this context is used in a general sense, and the reader should be able to understand its meaning through their own experience.
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् बोध कराता हो । प्रमाण केवल प्रत्यक्ष ही है । अनुमान, आगम, उपमान आदि जिन्हें अन्य दार्शनिक स्वीकार करते हैं, वे प्रमाण नहीं है, क्योंकि अनुमान आदि प्रमाणों में पदार्थ का-प्रमेय का तद्ग्राहकइन्द्रिय के साथ साक्षात् संबंध नहीं होता, इसलिए वहाँ दोष की संभावना बनी रहती है, तब पदार्थ या प्रमेय का लक्षण बाधित होता है, दूषित हो जाता है, इसलिए वह सर्वत्र अविश्वसनीय होता है । कहा है-एक अन्धा पुरुष विषमउबड़ खाबड़ मार्ग में हाथ के स्पर्श के सहारे दौड़ता हुआ जाता है, जैसे उसका गिर पड़ना दुर्लभ-असम्भव नहीं होता, उसी प्रकार अनुमान के सहारे चलने वाले या पदार्थों को सिद्ध करने का प्रयास करने वाले पुरुष का सस्खलित होना, चूकना असम्भव नहीं होता । अनुमान के साथ-साथ यहाँ आगम आदि का भी समावेश हो जाता है, क्योंकि वहाँ भी इन्द्रिय के साथ पदार्थ या प्रमेयतत्व का साक्षात् संबंध नहीं होता अतः अंधे के गिर पड़ने के समान वहाँ भी स्खलित हो जाना कठिन नहीं है, वैसी आशंका बनी रहती है, इसलिए केवल प्रत्यक्ष ही एकमात्र तथ्यपरक प्रमाण है।
उनके अनुसार पांच महाभूतों के अतिरिक्त आत्मा का इन्द्रियों द्वारा साक्षात् ग्रहण नहीं होता । पांचमहाभूतों के समवाय में-उनके मिलने पर जो चैतन्य प्राप्त होता है-अनुभूत होता है, वह देह के रूप में परिणत उन भूतों से ही अभिव्यक्त होता है । जैसे जिन पदार्थों के मिलने से मदिरा बनती है, वे पदार्थ जब मिल जाते हैं, तब उनमें सहज ही मादकता उत्पन्न होती हैं, उसी प्रकार चैतन्य पांचभूतों से पृथक कोई तत्व नहीं है, क्योंकि वह घट आदि की ज्यों कार्य है, पंचमहाभूत उसके कारण है। इस प्रकार पांचभूतों के अतिरिक्त-भिन्न आत्मा का अस्तित्व न होने के कारण चैतन्य या चेतना शक्ति की अभिव्यक्ति-प्राकट्यतत्वतः पांचमहाभूतों का ही है, उन पर ही टिका हैं । जैसे पानी पर बुबुद् आदि अभिव्यक्त होते हैं वैसे आत्मा की भूतों से ही अभिव्यक्ति होती हैं । यहाँ जो पांचमहाभूतों की चर्चा की है, उस पर एक शंका होती है कि पृथ्वी जल अग्नि और वायु ये चार ही भूत माने जाते रहे हैं फिर आकाश को क्यों लिया गया । इसका समाधान करते हुए टीकाकार लिखते हैं-कई चार्वाक मतानुयायी आकाश को भी एक भूत मानते हैं, इसलिए पांचमहाभूतों का उल्लेख करना दोषयुक्त नहीं है।
यदि पांच महाभूतों से पृथक् आत्मानामक किसी स्वतन्त्र पदर्थ का अस्तित्व नहीं है तो अमुक व्यक्ति मर गया, ऐसा वचन व्यवहार क्यों होता हैं, ऐसी शंका को ध्यान में रखते हुए टीकाकार लिखते हैं-देह के रूप में परिणत पांच महाभूतों से चेतनाशक्ति अभिव्यक्त होती है । वैसा होने के बाद जब उन भूतों में से किसी एक का नाश हो जाता है "वायु या अग्नि अथवा दोनों जब विछिन्न हो जाते हैं तब उदाहरणार्थ देवदत्त नामक व्यक्ति का नाश हो गया, वह मर गया, ऐसा व्यवहार होता है- कहा जाता है, किन्तु पंचभूतों से पृथक् कोई जीव नामक पदार्थ शरीर से चला गया, वस्तु:स्थिति यह नहीं है-वास्तव में ऐसा नहीं होता । यहाँ इसके समाधान में नियुक्तिकार ने कहा है -
पृथ्वी आदि पांचभूतों के आपस में मिलने पर अथवा देह के रूप में परिवर्तित हो जाने पर उनसे चैतन्य आदि उत्पन्न नहीं हो सकते । चैतन्य के साथ जो आदि शब्द का प्रयोग हुआ है, वह भाषा-बोलना, चंक्रमण-गति, चलना आदि गुणों या कार्यों का बोधक है । जो चैतन्य की तरह पंचभूतों से पैदा नहीं होते। नियुक्तिकार की यह प्रतिज्ञा-परिज्ञापन है, वे इस रूप में समझाते है । इस गाथा में अन्य आदि शब्द हेतु रूप से प्रयुक्त है, इस सम्बन्ध में पाठकों को दृष्टान्त स्वयं जान लेना चाहिए, क्योंकि वैसा सरलता से प्राप्त हो सकता है, इसलिए यहाँ उसका उल्लेख नहीं किया गया है ।।
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