Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
English Translation (preserving Jain terms):
The Shri Sutrakritanga Sutra states that those who claim to attain moksha (liberation) through performing homa (oblations) in the fire, either in the morning or evening, are propagating false doctrines. If moksha could be attained merely by contact with fire, then even the vile-actioned (kukarmi) individuals who handle fire, such as charcoal-makers, potters, and blacksmiths, should also attain it. Even the mantras and other rituals performed by them cannot be accepted, as the fire consumes the impurities of both the vile-actioned and the fire-oblation performers alike.
The sutra then states that those who, without proper examination, declare that liberation is attained through such means are deluded. One should instead know the truth through the study of the scriptures and the understanding of the mobile and immobile beings (trasasthavara).
________________
श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् अनुवाद - प्रातः काल तथा सायं काल अग्नि का संस्पर्श करते हुए-अग्नि में होम आदि करने से जो मोक्ष प्राप्त होना बतलाते हैं, वे मिथ्यावादी हैं । यदि इस प्रकार मोक्ष प्राप्त हो जाय तो अग्नि का संस्पर्श करने वाले कुत्सित कर्मा जनों को भी वह प्राप्त होना चाहिए ।
टीका – 'अग्निहोत्रं' जुहुयात् स्वर्गकाम 'इत्यस्माद्वाक्यात्' 'ये' केचन मूढा 'हुतेन' अग्नौ हव्यप्रक्षेपेण 'सिद्धिं' सुगतिगमनादिकां स्वर्गावाप्तिलक्षणाम् 'उदाहरन्ति' प्रतिपादयन्ति, कथम्भूताः ? - 'सायम्' अपराह्ने विकाले वा 'प्रातश्च प्रत्युषसि अग्नि 'स्पशन्तः' यथेष्टैर्हव्यैरग्निं तर्पयन्तस्तत एव यथेष्टगतिमभिलषन्ति, आहुश्चैव ते यथा-अग्निकार्यात्स्यादेव सिद्धिरिति, तत्र च यद्येवमग्निस्पर्शेन सिद्धिर्भवेत् ततस्तस्मादग्निं संस्पृशतां 'कुकर्मिणाम्' अङ्गारदाहककुम्भकारायस्कारादीनां सिद्धिः स्यात्, यदपि च मन्त्रपूतादिकं तैरूदाहियते तदपि च निरन्तरा सुहृदः प्रत्येष्यन्ति, यतः कुकर्मिणामप्यग्निकार्ये भस्मापादनमग्निहोत्रिकादीनामपि भस्मसात्कारण मिति नातिरिच्यते कुकर्मिभ्योऽग्निहोत्रादिकं कर्मेति यदप्युच्यते-अग्निमुखा वैदेवाः, एतदपि युक्तिविकलत्यावत्वाङ्मात्रमेव, विष्ठादिभक्षणेन चाग्नेस्तेषां बहुतर दोषोत्पत्तेरिति ॥१८॥ उक्तानि पृथक् कुशीलदर्शनानि, अयम परस्तेषां सामान्योपालम्भ इत्याह
टीकार्थ - जो पुरुष स्वर्ग की कामना करे उसे अग्निहोत्र-अग्नि में हवन करना चाहिए । इस वाक्य के आधार पर कई मूढ-अज्ञानी पुरुष यह बतलाते हैं कि अग्नि में हवन करने से स्वर्ग प्राप्ति के रूप में उत्तम गति सिद्ध होती है, प्राप्त होती है, वह कैसे हैं ? इसे स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं कि अपराह्न-तीसरे पहर अथवा सांयकाल तथा प्रात:काल यथेष्ठ हव्य-हवनीय सामग्री द्वारा अग्नि को परितृप्त करते हुए वे अपने उस कर्म से अभिष्ट गति की कामना करते हैं । वे कहते हैं कि अग्नि कार्य-हवन करने से अवश्य सिद्धि होती है, परन्तु यदि अग्नि के स्पर्श मात्र से मुक्ति प्राप्त हो तो अग्नि जलाकर कोयला आदि तैयार कर आजीविका चलाने वाले, तथा मिट्टी के बर्तन पकाने वाले कुम्भकार-कुम्हार तथा लोहे का काम करने वाले लुहार आदि निम्न कर्म करने वालों को भी सिद्धि-मुक्ति प्राप्त होनी चाहिए । अग्नि स्पर्श से जो सिद्धि मानते हैं वे मंत्र से पवित्र अग्नि के स्पर्श से सिद्धि होती है ऐसा वर्णन करते हैं । इसे उनके निरन्तरसुहृद-मूढमित्र ही स्वीकार कर सकते हैं क्योंकि कुत्सित कर्मा जनों द्वारा अपने में डाली हुई वस्तु को अग्नि जैसे भस्म कर डालती है, उसी प्रकार अग्नि में हवन करने वाले पुरुष द्वारा डाली गई वस्तु को भी वह भस्म करती है । अतः कुत्सित कर्मा एवं अग्निहोत्री के अग्नि संबद्ध कार्य में एक दूसरे से परस्पर कोई विशेषता नहीं है । इसलिए यह कथन मात्र है । अग्नि तो विष्ठा को भी भस्म कर देती है । अतः उपर्युक्त सिद्धान्त को मानने से अनेक दोष उत्पन्न होते हैं । कुशीलों के दर्शनों का भिन्न-भिन्न वर्णन किया गया है । अब उनका सामान्य रूप में विवेचन करते हुए सूत्रकार कहते हैं ।
अपरिक्ख दिलृ ण हु (एव) सिद्धी, एहिंति ते घायमबुज्झमाणा। . भूएहिं जाणं पडिलेह सातं, विज्जं गहायं तसथावरेहिं ॥१९॥ छाया - अपरीक्ष्य दृष्टं नैवैवं सिद्धि रेष्यन्ति ते घातमबुध्यमानाः ।
भूतैर्जानीहि प्रत्युपेक्ष्य सातं, विद्यां गृहीत्वा त्रसस्थावरैः ॥ अनुवाद - जो पुरुष अग्नि में हवन करने से या जल में अवगाहन-स्नान आदि से सिद्धि प्राप्त होना प्रतिपादित करते हैं वे अपरीक्षदर्शी हैं । परीक्षा, विश्लेषण आदि किये बिना देखने वाले हैं । वास्तविकता यह
-382