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## The Sutra Kritanga Sutra
**Chapter 25**
This verse explains the eight types of karma that are abandoned (**apnayatyashtprakaram karmeti sesha**). It also describes the characteristics of the liberated soul:
* **Vigatagriddi:** One who is free from greed (**gaddharyam abhilasho yasya sa vigatagriddi**).
* **Sannividhi:** One who is free from attachment (**sannihidhanam sanniidhi**). This includes both material attachment (**dravya sanniidhi**), such as wealth, possessions, animals, etc., and mental attachment (**bhavasanniidhi**), such as attachment to emotions like anger, delusion, etc. The liberated soul does not engage in either type of attachment (**tamu bhayaraapam api sanniidhi na karoti bhagavan**).
* **Ashu prajna:** One who is quick-witted and has immediate knowledge (**sarvatra sadop yogat na chhadmasthavan manasa paryalochya padartha parichchitti vidhatte**). They do not need to ponder or analyze things like those who are ignorant (**chhadmastha**).
* **Mahabhavoudha:** One who has crossed the vast ocean of samsara (**taritva samudram iva aparam mahabhavoudham**). This ocean is filled with suffering and is characterized by the four gatis (**chatur gatik samsara sagaram bahu vyasana kulum**). The liberated soul has attained the highest state of liberation (**sarvottamam nirvanam asaditavan**).
* **Abhayam:** One who is fearless and provides protection to all beings (**praninam pran raksharoopam svatha parathach sadupadeshadanaat karotityabhayamkara**). They are fearless because they have conquered all fear (**abhayamkara**).
* **Veer:** One who is a hero and destroys the eight types of karma (**asht prakaram karma visheshenere yati prerayatiti veer**). They are a hero because they have conquered their own inner enemies (**veer**).
* **Anant:** One who has infinite knowledge (**anant aparyavasanam nityam jneyananantatvadva anant chakshuriva chakshu**). Their knowledge is like an infinite eye (**kevalgyanam yasya sa tatheti**).
**Chapter 26**
This verse describes the qualities of the liberated soul (**arhan maharishi**):
* They have conquered the four inner enemies (**kashyaas**): anger (**krodha**), pride (**mana**), delusion (**maya**), and greed (**lobha**).
* They do not create any negative karma (**paapam na karayati**).
* They do not cause others to create negative karma (**naanyai karayati**).
**Commentary**
The commentary explains that the liberated soul is free from all inner enemies (**adhyaatmadosha**). They are a **tirtankara** (**arhan**), a ford-maker, who guides others towards liberation. They are also a **maharishi** (**mahan rishi**), a great sage, because they have conquered all inner enemies. They do not create any negative karma (**paapam**), nor do they cause others to create negative karma (**naanyai karayati**).
**Om Om Om**
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
अपनयत्यष्ठप्रकारं कर्मेति शेष:, तथा - 'विगता' प्रलीना सबाह्याभ्यन्तरेषु वस्तुषु 'गृद्धि : ' गाद्धर्यमभिलाषो यस्य स विगतगृद्धिः, तथा सन्निधानं सन्निधिः, स च द्रव्यसन्निधिः धनधान्यहिरण्यद्विपदचतुष्पदरूपः भावसन्निधिस्तु माया क्रोधादयो वा सामान्येन कषायास्तमुभयरूपमपि संनिधि न करोति भगवान्, तथा 'आशुप्रज्ञः ' सर्वत्र सदोपयोगात् न छद्मस्थवन्मनसा पर्यालोच्य पदार्थपरिच्छित्तिं विधत्ते, स एवम्भूतः तरित्वा समुद्रमिवापारं 'महाभवौधं' चतुर्गतिक संसारसागरं बहुव्यसनाकुलं सर्वोत्तमं निर्वाणमासादितवान् पुनरपि तमेव विशिनष्टि - ' अभयं' प्राणिनां प्राण् रक्षारूपं स्वतः परतश्च सदुपदेशदानात् करोतीत्यभयंकरः, तथाऽष्ट प्रकारं कर्म विशेषेणे रयति - प्रेरयतीति वीर:, तथा 'अनन्तम्' अपर्यवसानं नित्यं ज्ञेयानन्तत्वाद्वाऽनन्तं चक्षुरिव चक्षुः- केवलज्ञानं यस्य स तथेति । २५॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ जैसे पृथ्वी सब प्राणियों का आधार है, उसी प्रकार भगवान महावीर सबके आधार है क्योंकि वे जीवों को अभय प्रदान करते हैं और सदुपदेश देते हैं। जैसे पृथ्वी सब सहन करती है, उसी प्रकार भगवान समग्र परिषहों और उपसर्गों को भलीभांति सहन करते हैं । वे अष्टविध कर्मों का अपनयन करते हैंउन्हें अपने से दूर करते हैं । वे बाह्य - बाहरी तथा आभ्यन्तर भीतरी वस्तुओं में आसक्ति रहित हैं ।
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सन्निधान या नैकट्य को सन्निधि कहा जाता है। धन धान्य, द्विपद-दो पैरों वाले प्राणी मनुष्य, चतुष्पदचार पैरों वाले प्राणी- पशु, इनका सम्पर्क द्रव्य सन्निधि कहा जाता है । माया छलना, प्रवंचना, क्रोध आदि अथवा सामान्य रूप से सब कषायों के सम्पर्क को भाव सन्निधि कहा जाता है। भगवान इन दोनों ही प्रकार की सन्निधियों को नहीं करते इन दोनों में सम्पर्क नहीं रखते। वे आशुप्रज्ञ हैं, क्योंकि उनका ज्ञान सर्वत्र - सब जगह व्याप्त रहता है । वे छद्मस्थों-असर्वज्ञों की ज्यों मन द्वारा चिंतन कर पदार्थों का निश्चय नहीं करते। उन भगवान महावीर ने अत्यन्त दुःखपूर्ण, चार गतियुक्त संसार रूपी समुद्र को पार कर मोक्ष को सर्वोत्तम स्थान को आत्मसात कर लिया है । उनकी विशेषताएँ बतलाते हुए कहते है भगवान प्राणियों को अभय के रूप में रक्षण देते रहे तथा सदूधर्म का उपदेश देकर उनको अभय करते रहे - निर्भीक बनाते रहे । भगवान् अष्टविध कर्मों को विशेष रूप से अपगत करते हैं- दूर करते हैं । अतः वे वीर - आत्म पराक्रमी हैं । केवल ज्ञान - सर्वज्ञत्व उनके नेत्र के समान है जिसका कोई अन्त नहीं है अर्थात् जो नित्य है, अथवा ज्ञेय पदार्थों की अनन्तता के कारण जो अनन्त हैं । इस प्रकार भगवान अनन्त चक्षु हैं ।
ॐ ॐ ॐ
कोहं च माणं च तहेव मायं, लोभं चउत्थं अज्झत्थदोसा । एआणि वंता अरहा महेसी, ण कुव्वई पाव ण कारवेइ ॥ २६ ॥
छाया क्रोधञ्च मानञ्च तथैव मायां, लोभञ्चतुर्थ ञ्चाध्यात्मदोषान् । पापं न कारयति ॥
वान्त्वाऽरहन्महर्षिर्नकरोति
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एतान् अनुवाद भगवान महावीर महर्षि - महान् ऋषि, द्रष्टा । वे क्रोध, अभिमान, माया और लोभ इन चार कषायों को पराभूत कर न स्वयं पाप - अशुभ कर्म करते हैं और न ओरों से वैसा कर्म कराते हैं ।
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टीका निदानोच्छेदेन हि निदानिन उच्छेदो भवतीं ति न्यायात् संसारस्थितेश्च क्रोधादयः कषायाः करणमत एतान् अध्यात्मदोषाश्चतुरोऽपि क्रोधादीन् कषायान् 'वान्त्वा' परित्यज्य असौ भगवान् ‘अर्हन्' तीर्थकृत् जात:, तथा महर्षिः, एवं परमार्थतो महर्षिकत्वं भवति यद्यध्यात्मदोषा न भवन्ति, नान्यथेति, तथा न स्वतः 'पाप' सावद्यमनुष्ठानं करोति नाप्यन्यैः कारयतीति ॥ २६ ॥ किञ्चान्यत्
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