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The mountain king, Meru, is situated in the middle of the earth, shining with the brilliance of the sun. He is adorned with many colors and is pleasing to the mind. He illuminates all directions like the sun.
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वीरत्थुई अध्ययन महीइ मझूमि ठिते णगिंदे, पन्नायते सूरियसुद्धलेसे । एवं सिरिए उ स भूरिवन्ने, मणोरमे जोयइ अच्चिमाली ॥१३॥ छाया - मह्यां मध्ये स्थितो नगेन्द्रः प्रज्ञायते सूर्यशुद्धलेश्यः ।
एवं श्रिया तु स भूरिवर्णः मनोरमो द्योतयत्यर्चिमाली ॥ अनुवाद - वह नगेन्द्र-पर्वतराज पृथ्वी के मध्यभाग में-बीचों बीच अवस्थित है । वह सूर्य के समान उज्जवल कांतियुक्त है । वह अनेक वर्णयुक्त एवं मनोरम है । वह अर्चिमाली-सूर्य के सद्दश सब दिशाओं को उद्योदित करता है।
टीका - 'मह्यां' रत्नप्रभापृथिव्यां मध्यदेशे जम्बूद्वीपस्तस्यापि बहुमध्यदेशे सौमनसविद्युत्प्रभगन्धमादन माल्यवन्तदेष्ट्रापर्वतचतुष्टयोपशोनितः समभूभागे दशसहस्त्रविस्तीर्णः शिरसि सहस्त्र मेकमधस्तादपिदशसहस्त्राणि नवतियोजनानि योजनैकादशभागैर्दशभिरधिकानि विस्तीर्णः चत्वारिंशद्योजनोच्छ्रितचूडोपशोभितो 'नगेन्द्रः' पर्वतप्रधानो मेरुः प्रकर्षेण लोके ज्ञायते 'सूर्यवच्छुद्धलेश्यः'-आदित्यसमानतेजाः, एवम्' अनन्त रोक्तप्रकारयाश्रिया तुशब्दाद्विशिष्टतरया सः-मेरुः 'भूरिवर्णः' अनेकवर्णो अनेकवर्णरत्नोपशोभितत्वात् मन:-अन्त:करणं रमयतीति मनोरमा 'अर्चिमालीव' आदित्य इव स्वतेजसाद्योतयति दशापि दिशः प्रकाशयतीति ॥१३॥ साम्प्रतं मेरुदृष्टान्तोपक्षेपेण दाष्ट्रान्तिकं दर्शयति
टीकार्थ - रत्न प्रभा पृथ्वी के मध्य देश में बीच के भाग में जम्बूद्वीप है । उसके बहुमध्य देश में-ठीक बीच में सौमनस, विद्युत्तप्रभ, गन्धमादन तथा माल्यवान नामक इन चार उपपर्वतों से उपशोभित, समभूभाग में दस सहस्र योजन विस्तीर्ण मस्तक पर एक सहस्र योजन विस्तीर्ण पुनः नीचे दससहस्र योजन विस्तीर्ण तथा प्रत्येक नब्बे योजन पर, एक योजन के ग्यारवे भाग-१/११ कम विस्तारयुक्त बाकी का योजन के दसवें भाग जितना विस्तीर्ण मेरु पर्वत है । उसके मस्तक पर चालीस योजन ऊँचा शिखर है । गिरि श्रेष्ठ मेरु सूर्य के समान शुद्ध प्रकाशयुक्त है । उपर्युक्त विशेषताओं से समन्वित वह पर्वत अनेक प्रकार के रत्नों से शोभित होने के कारण अनेक वर्ण युक्त है । वह मन को बड़ा रमणीय प्रतीत होता है । सूर्य की तरह अपने तेज से दिशाओं को उद्योदित करता है।
मेरु पर्वत का दृष्टान्त बतलाकर सूत्रकार उसका सार बतलाते हैं ।
सुदंसणस्सेव जसोगिरिस्स, पवुच्चई महतो पव्वयस्स । एतोवमे समणे नायपुत्ते, जातीजसोदंसण नाणसीले ॥१४॥ छाया - सुदर्शनस्येव यशोगिरेः प्रोच्यते महतः पर्वतस्य ।
एतदुपमः श्रमणो ज्ञातपुत्रः जातियशोदर्शन ज्ञानशीलः ॥ अनुवाद - पर्वतों में मेरु पर्वत की यशस्विता का पूर्वोक्त रूप में वर्णन किया गया है। भगवान महावीर स्वामी को उसी पर्वत से उपमित किया जाता है । जैसे सुमेरु अपने गुणों के कारण समग्र पर्वतों में श्रेष्ठ है। उसी तरह भगवान महावीर जाति, यश, दर्शन, ज्ञान और शील में सबसे उत्तम है।
टीका - एतदनन्तरोक्तं 'यशः' कीर्तनं सुदर्शनस्य मेरुगिरेः महापर्वतस्य प्रोच्यते, साम्प्रतमेतदेव भगवति दार्टान्तिके योज्यते-एषा-अनन्तरोक्तोपमा यस्य स एतदुपमः, कोऽसौ ?-श्राम्यतीति श्रमणस्तपोनिष्टप्तदेहो ज्ञाता:
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