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The study of the heroic. He, the all-seeing, the conqueror of all knowledge, stands firm in the state of non-odor. He is the unsurpassed knower in all the worlds, free from the fetters of the past, fearless, and without lifespan.
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वीरत्थुई अध्ययनं । से सव्वदंसी अभीभूयनाणी, णिरामगंधे धिइमं ठितप्पा । अणुत्तरे सव्वजगंसि विजं, गंथा अतीते अभए अणाऊ ॥५॥ छाया - स सर्वदर्शी अभिभूय ज्ञानी, निरामगन्धो धृतिमांस्थितात्मा ।
अनुत्तरः सर्वजगत्सु विद्वान् ग्रन्था दतीतोऽभयोऽनायुः । अनुवाद - भगवान महावीर समस्त पदार्थों के दृष्टा केवलज्ञानी थे । वे मूल गुणों एवं उत्तर गुणों से परिमार्जित चारित्र के परिपालक धृति मान और स्थितात्मा थे, आत्म स्वरूप में समवस्थित थे। वे समस्त जगत में अनुत्तर ज्ञानी-सर्वाधिक ज्ञानवान तथा बाह्य एवं आभ्यन्तर ग्रन्थियों से अतीत निर्भय एवं निरायु थे ।
टीका - 'स' भगवान् सर्वं-जगत् चराचरं सामान्येन द्रष्टुं शीलमस्य स सर्वदर्शी, तथा अभिभूय पराजित्य मत्यादीनि चत्वार्यपि ज्ञानानि यद्वर्तते ज्ञानं केवलाख्यं तेन ज्ञानेन ज्ञानी, अनेन चापरतीर्थाधिपाधिकत्वमावेदितं भवति, 'ज्ञान क्रियाभ्यां मोक्ष' इति कृत्वातस्य भगवतो ज्ञानं प्रदर्श्य क्रियां दर्शयितुमाह-निर्गत:-अपगत आमः -अविशोधिकोट्याख्यः तथा गन्धो-विशोधिकोटिरूपो यस्मात् स भवति निरामगन्धः, मूलोत्तरगुणभेदभिन्नांचारित्रक्रियां कृतवानित्यर्थः, तथाऽसह्य परीषहोपसर्गाभिद्रुतोऽपिनिष्प्रकम्पतया चारित्रे धृतिमान् तथा-स्थितो व्यवस्थितोऽशेष कर्म विगमादात्मस्वरूपे आत्मा यस्य स भवति स्थितात्मा, एतच्च ज्ञान क्रिययोः फलद्वारेण विशेषणं, तथानास्योत्तरं-प्रधानं सर्वस्यन्नपि जगति विद्यते (यः) स तथा, विद्वानिति सकल पदार्थानां करतलामलकन्यायेन वेत्ता, तथा बाह्यग्रन्थात् सचित्तादिभेदादान्तराच्च कर्मरुपाद् ‘अतीतो' अतिक्रान्तो ग्रन्थातीतो-निर्ग्रन्थ इत्यर्थः, तथा न विद्यते सप्तप्रकारमपि भयं यस्यासावभयः समस्तभयरहित इत्यर्थः तथा न विद्यते चतुर्विधमप्यायुर्यक्य स भवत्यनायुः, दग्धकर्मबीजत्वेन पुनरूत्पत्तेरसंभवादिति ॥५॥ अपिच -
टीकार्थ - भगवान् महावीर स्वामी सर्वदर्शी-स्वभावतः समस्त चराचर जगत को सामान्य रूप से देखने वाले थे । जो मति आदि चार ज्ञानों को पराभूत कर सर्वाग्र रूप में रहता है, उसे केवल ज्ञान कहते हैं । भगवान् उससे समायुक्त थे । सूत्रकार यहाँ भगवान को केवल ज्ञानी बताकर अन्य मतानुयायियों के तीर्थंकरों से उनकी विशेषता प्रकट करते हैं । ज्ञान तथा क्रिया दोनों से मोक्ष होता है । अतएव सूत्रकार पहले भगवान् के ज्ञान का दिग्दर्शन कराकर अब उनकी क्रिया का निरूपण करने हेतु कहते हैं-विशुद्ध कोटि रूप और अविशुद्ध कोटि रूप दो प्रकार के गन्ध या दोष बतलाए गये हैं । जिसके ये दोष हट जाते हैं, उसे निरामगंध कहा जाता है । भगवान महावीर निरामगन्ध थे । इसका अभिप्राय यह है कि उन्होंने मूलगुणों और उत्तरगुणों से युक्त विशुद्ध चारित्रिक क्रिया का परिपालन किया था । असह्य परीषहों और उपसर्गों के रूप में बाधाएं प्राप्त होने पर भी वे निष्प्रकम्प-अविचल बने रहे । चारित्र में सर्वथा दृढ़ रहे । समग्र कर्मों के अपगत हो जाने से भगवान् आत्मस्वरूप में अवस्थित हुए । आत्मस्वरूप में स्थिर होना, भगवान के ज्ञान और क्रिया सम्पन्न होने की विशेषता का सूचक है । समस्त जगत में भगवान से अधिक कोई ज्ञानी नहीं था । वे हाथ में रखे आँवले की ज्यों जगत के समस्त पदार्थों के वेत्ता-ज्ञाता थे । वे सचित्तादि रूप बाह्य ग्रंथ तथा कर्मरूप आभ्यन्तर ग्रंथ से अतिक्रान्त थे-दूरवर्ती थे । अतएव निग्रन्थ थे । भगवान को सातों ही प्रकार के भय नहीं थे, अत: वे सर्वभयातीत थे । भगवान के चारों प्रकार का आयुष्य नहीं था (यहाँ वर्तमान आयु का अपवाद है) । कर्म रूप बीज के जल जाने से आयुष्य की उत्पत्ति असंभावित है ।
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