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The study of the Veeraththu commentary - The Lord is endowed with thirty-four atiśayas. He knows the suffering caused by the karmic consequences of living beings in the world, hence he is known as Kheda-jña (knower of suffering). He is capable of removing suffering by giving teachings. Or, if 'Kshetra-jña' means 'knower of the self' due to the knowledge of the true nature of the self, or if 'Kshetra' means 'space', then he is Kshetra-jña because he knows the nature of the world and the non-world. He is called 'Kushala' because he destroys the eight types of karmic forms called 'Bhavakushas'. He is skilled in destroying the karma of living beings. He is 'Aashu-prajña' because his wisdom is swift. He is always useful everywhere. He does not know by thinking like a 'Chhadma-stha' (pretender). Sometimes the reading is 'Maharshi'. He is a great sage because he is a great sage due to his intense penance and his endurance of countless hardships and afflictions. He is 'Ananta-jñani' because his knowledge is infinite, indestructible, and encompasses all things, or because it is the special recipient of knowledge. He is 'Ananta-darshi' because he is the determiner of general meaning. Such a Lord is 'Yashasvi' because his fame surpasses that of humans, gods, and demons. He is the 'Chakshu-pathe' (eye path) of the world, because he is in the state of 'Bhavastha-kevali'. He is the eye of the world because he reveals the subtle and obstructed objects of the world. Know the nature of the Dharma that liberates from the world, which is taught by him. Know the Dharma called 'Shruta-charitra' which is taught by him. See the 'Dhriti' (steadfastness) of the Lord, which is unwavering and unmoving even when afflicted by afflictions. See the 'Rati' (delight) in restraint, which is taught by him. Consider it with your sharp and intelligent mind. Or, the Shramanas and others asked Sudharmaswami, "Do you know the Dharma of the Lord, who is glorious and the eye of the world, and his steadfast and intense restraint-filled life? If so, tell us."
Thus, Sudharmaswami begins to describe his qualities.
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वीरत्थुई अध्ययनं टीका - सः-भगवान् चतुस्त्रिंशदतिशयसमेतः खेदं-संसारान्तर्वर्तिनां प्राणिन कर्मविपाकजं दुःखं जानातीति खेदज्ञो दु:खापनोदनसमर्थोपदेशदानात्, यदि वा 'क्षेत्रज्ञो' यथावस्थितात्मस्वरूप परिज्ञानादात्मज्ञ इति, अथवाक्षेत्रम्-आकाशं तज्जानातीति क्षेत्रज्ञो लोकालोकस्वरूपपरिज्ञातेत्यर्थः, तथा भावकुशान्-अष्टविधकर्म रूपान् लुनातिछिनत्तीति कुशलः प्राणिनां कर्मोच्छित्तये निपुण इत्यर्थः, आशु-शीघ्रं प्रज्ञा यस्या सावाशुप्रज्ञः, सर्वत्र सदोपयोगाद्, न छद्मस्थ इव विचिन्त्य जानातीति भावः, महर्षिरिति क्वचित्पाठः, महांश्चासावृषिश्च महर्षिः अत्यन्तोग्रत पश्चरणानुष्ठायित्वादतुलपरीषहोपसर्गसहनाच्चेति, तथा अनन्तम्-अविनाश्यनन्तपदार्थपरिच्छेदकं वा ज्ञान-विशेषग्राहकं यस्या सावनन्तज्ञानी, एवं सामान्यार्थपरिच्छेदकत्वेनानन्तदर्शी, तदेवम्भूतस्य भगवतो यशो नृसुरासुरातिशाय्य तुलं विद्यते यस्य स यशस्वी तस्य, लोकस्य 'चक्षुःपथे' लोचनमार्गे भवस्थकेवल्यवस्थायां स्थितस्य, लोकानां सूक्ष्मव्यवहितपदार्थाविर्भावनेन चक्षुर्भूतस्य वा जानीहि' अवगच्छ धर्म संसारोद्धरणस्वभावं, तत्प्रणीतं वा श्रुतचारित्राख्यं, तथा तस्यैव भगवतस्तथोपसर्गितस्थापि निष्पकम्पां चारित्राचलन स्वभावां 'धृति' संयमे रतिं तत्प्रणीतां वा 'प्रेक्षस्व' सम्यक्कुशाग्रीयया बुद्धया पर्यालोचयेति, यदिवा-तैरेव श्रमणादिभिः सुधर्मस्वाम्य भिहितो यथात्वं तस्य भगवतो यशस्विनश्चक्षुष्पथे व्यवस्थितस्य धर्मं धृर्तिं च जानीषे ततोऽस्माकं 'पेहि' त्ति कथयेति ॥३॥ साम्प्रतं सुधर्मस्वामी तद्गुणान् कथयितुमाह -
टीकार्थ - इस प्रकार प्रश्न किये जाने पर श्री सधर्मास्वामी भगवान महावीर के गुणों का कथन करते हैं-भगवान महावीर चौतीस अतिशयों के धारक थे । वे संसार में निवास करने वाले प्राणियों के कर्मो के फलस्वरूप होने वाले दुःख को जानते थे । वे ऐसा उपदेश करते थे जो उनके दुःख को मिटाने में सक्षम था, अथवा भगवान क्षेत्रज्ञ थे, वे आत्मा के यथार्थ-सत्य स्वरूप को जानने के कारण आत्मज्ञ-आत्मवेत्ता थे, अथवा क्षेत्र का आकाश भी नाम है, भगवान आकाश, लोक अलोक का स्वरूप जानते थे । जो अष्टविध कर्म रूप भाव कुशों का छेदन करता है, उसे कुशल कहा जाता है । भगवान प्राणियों के कर्मों का छेदन-नाश या विध्वंस करने में चतुर थे । चतुर होने के कारण कुशल थे । जिसकी बुद्धि शीघ्र या त्वरता युक्त होती है, उसे आशुप्रज्ञ कहा जाता है । भगवान् आशुप्रज्ञ थे, क्योंकि वे सदा सब जगह उपयोग रखते थे । इसका भावार्थ यह है कि वे छद्मस्थ-असर्वज्ञ की तरह सोच कर नहीं जानते थे । कहीं महर्षिः-पाठ मिलता है । उसका तात्पर्य यह है कि भगवान् अत्यन्त कठोर तपश्चरण करने तथा अपरिसीम परिषहों और उपसर्गों को सहन करने से महर्षिमहान ऋषि थे । जिसका विशेष ग्राहक ज्ञान अन्तरहित-अविनश्वर होता है अथवा अनन्त पदार्थों का निश्चायक होता है, उसे अनन्त ज्ञानी कहते है । भगवान् अनन्तज्ञानी थे । दर्शन या सामान्य अर्थ का निश्चय करने के कारण वे अनन्तदर्शी थे । भगवान का यश मानवों, देवों और असुरों से भी बढ़ा चढ़ा था । अतएव वे यशस्वी थे । भवस्थ केवली अवस्था में वे जगत के नेत्र पथ में अवस्थित थे, अथवा जगत के समस्त सूक्ष्म तथा व्यवधान युक्त पदार्थों को प्रकट करने के कारण वे जगत के नेत्र स्वरूप थे । उन भगवान द्वारा प्रतिपादित धर्म को जो संसार से उद्धार करने का स्वभाव लिए हुए है, उन द्वारा प्रातिपादित श्रुत एवं चारित्र रूप धर्म को जानो । उपसर्गों द्वारा बाधित किये जाने पर भी निष्पकम्प, अविचल चारित्र रूप स्वभाव तथा अविचल धृति-संयम में प्रीति को देखो तथा कुशाग्र-तीव्र बुद्धि द्वारा उन पर चिंतन करो । सारांश यह है कि उन्हीं श्रमण आदि ने श्री सुधर्मा स्वामी से पूछा कि यशस्वी और जगत के चक्षुरूप भगवान महावीर के धर्म को और उनके धैर्यशीलउत्कट संयममय जीवन को आप जानते हैं, इसलिए आप यह सब बतलाये ।
साये।
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