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The Sutra Kritanga Sutra says: "They do not become ashes in the fire of hell, nor do they die from the intense torment. They experience the consequences of their actions, suffering in this world due to their misdeeds." (16)
Commentary: "These hell beings, even though they are repeatedly burned, do not become ashes in hell, nor do they die from the torment. The intensity of their suffering cannot be compared to the pain of a fish thrown into fire. It is a suffering beyond description. Even though they experience intense torment, they do not die because they still have to experience the consequences of their actions. They continue to experience the consequences of their actions, suffering from the cold and heat, burning, cutting, piercing, scraping, impaling, cooking in a pot, climbing the salmali tree, and other torments inflicted by the gods. They suffer from the consequences of their actions, especially the eighteen types of sins, including violence. They do not find even a moment of respite from their suffering." (16)
"They go towards the blazing fire to escape the cold, but they do not find relief. They are tormented by the intense heat of the fire. The gods further torment them." (17)
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् नो चेव ते तत्थ मसीभवंति, ण मिजती तिव्वभिवेयणाए । तमाणुभागं अणुवेदयंता, दुक्खंति दुक्खी इह दुक्कडेणं ॥१६॥ छाया - नो चैव ते तत्र मषीभवन्ति, न नियन्ते तीव्राभिवेदनया ।
तमनुभागमनुवेदयन्तः दुःख्यन्ति दुःखिन इह दुष्कृतेन ॥ अनुवाद - नारकीय प्राणी नरक की अग्नि में जलकर भस्म नहीं होते, तथा नरक की तीव्र यातना से वे मरते भी नहीं, किन्तु अपने द्वारा किए गए दुष्कृतों-पापों के कारण नरक की यातना भोगते रहते हैं, दुःखी रहते हैं।
टीका - ते च नारका एवं बहुशः पच्यमाना अपि 'नो' नैव 'तत्र' नरके पाके वा नरकानुभावे वा सति 'मषीभवन्ति' नैव भस्मासाद्भवन्ति, तथा तत्तीव्राभिवेदनया नापरमग्निप्रक्षिप्तमत्स्यादिकमप्यस्ति यन्मीयतेउपमीयते, अनन्यसदृशीं तीव्रां वेदनां वाचामगोचरामनुभवन्तीत्यर्थः, यदि वा-तीव्राभिवेदनयाऽप्यननुभूतस्वकृत कर्मत्वान्न म्रियन्त इति. प्रभतमपि कालं यावत्तत्तादशं शीतोष्णवेदनाजनितं तथा दहनच्छेदनभेदनतक्षण त्रिशूलारोपणकुम्भी-पाकशाल्यल्यारोहणादिकं परमाधार्मिकजनितं परस्परोदीरणनिष्पादितं च 'अनुभागं' कर्मणा विपाकम् 'अनुवेदयन्तः' समनुवेदयन्तः समनुभवन्तस्तिष्ठन्ति तथा स्वकृतेन 'दुष्कृतेन' हिंसा दिनाऽष्टादशपापस्थान रूपेण सततोदीर्णदुःखेन दुःखिनो 'दुःख्यन्ति' पीड्यन्ते, नाक्षिनिमेषमपि कालं दुःखेन मुच्यन्त इति॥१६॥ किञ्चान्यत्
टीकार्थ – वे नारकीय प्राणी जैसा पहले वर्णित हुआ है, अनेक बार पकाये जाने पर भी उस नरक में जलकर भस्म नहीं हो जाते, तथा वे जैसी घोर वेदना का अनुभव करते हैं, आग में जलती हुई मछली की वेदना से भी उनकी वेदना उपमित नहीं की जा सकती । वह ऐसी वेदना है, जिसका वर्णन नहीं किया जा सकता, जिसे वे नारक भोगते हैं, अथवा तीव्र वेदना होने के बावजूद अपने द्वारा किये गए कर्मों का फल भोग अवशिष्ट-बाकी रहने के कारण वे नारकीय जीव मरते नहीं है । वे दीर्घकाल पर्यन्त जैसा पहले उल्लेख हुआ है अपने कर्मों के फलस्वरूप सर्दी गर्मी आदि से जनित पीड़ा, परमाधामी देवों द्वारा निष्पादित दहनजलाना, छेदन-काटना, भेदन-अलग-अलग करना, तक्षण-छीलना, त्रिशूल में पिरोना, कुम्भी में पकाना, शाल्मलीवृक्ष पर चढ़ाना आदि एवं आपस में एक दूसरे द्वारा उत्पादित दुःखों को वहाँ भोगते हुए रहते हैं । नरक में आपतित जीव स्वकृतहिंसा आदि अठारह स्थान रूप पापों के परिणाम स्वरूप उत्पन्न दुःखों से उत्पीडित होते रहते हैं। नेत्र के पलक झपकने तक के समय में भी वे दुःख से छुटकारा नहीं पाते ।
तहिं च ते लोलण संपगाढे, गाढं सुतत्तं अगणिं वयंति । न तत्थ सायं लहती भिदुग्गे, अरहियाभितावा तहवी तविंति ॥१७॥ छाया '- तस्मिंश्च ते लोलन संप्रगाढे, गाढं सुतप्तमग्निं व्रजन्ति ।
न तत्र सातं लभन्तेऽमिदुर्गेऽरहिताभितापान् तथापि तापयन्ति । अनुवाद - नरक में सर्दी से पीडित नारकीय प्राणी उसे दूर करने हेतु प्रज्वलित अग्नि के समीप जाते हैं, परन्तु वे वहाँ सुख नहीं पाते । उस भयावह अग्नि से परितप्त होने लगते हैं । उन परिताप पाते नारक जीवों को परमाधामी देव और अधिक परितप्त करते हैं ।
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