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English translation preserving Jain terms:
The Shri Sutrakritanga Sutra states that many individuals who have come under the sway of women continue to obey their commands. The man who is engrossed in sinful activities for the sake of sensual pleasures is like a deer trapped in a net, a purchased servant, or an animal - he is the most wretched of all.
Commentary - The statement "thus" refers to the previous mention of women's commands such as nurturing sons, washing clothes, etc. These have been performed by many worldly beings in the past, are being performed in the present, and will be performed in the future. Those men who, without considering the fear of karmic consequences in this life and the next, have become inclined towards and engaged in sinful activities - they perform all the aforementioned tasks. The man who is blinded by passion and is under the control of women, is assigned by those fearless women not only to the previously mentioned tasks, but also to many other such works. Just as a deer trapped in a net is dependent on others, unable to act according to his own will, and cannot even perform basic functions like eating, similarly the man under the sway of a woman becomes subservient, unable to carry out actions as per his own desire. He is employed like a purchased servant in cleaning, washing, and disposing of excreta and the like. Devoid of the discrimination between right and wrong conduct, and unaware of what is beneficial or harmful, he becomes like an animal - just as an animal knows only feeding, fear, and sexual urges, similarly this man, due to the lack of righteous conduct, is like an animal. Or, the man under the control of women is even more wretched than a servant, deer, purchased slave, or animal, as he is bereft of both - he is neither a renunciant monk due to the lack of righteous conduct, nor a householder due to the non-consumption of betel and the like, and mere hair-plucking. He is not among those who perform the duties of this world and the next, as neither this world nor the next is accomplished for him.
Now the author concludes this study and instructs the abandonment of association with women.
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् अनुवाद - स्त्री के वश में हुए ऐसे अनेक व्यक्ति उसकी आज्ञा का पालन करते रहे हैं । जो पुरुष काम भोग के निमित्त पाप कार्यों में संसक्त है, वह जाल में फंसे हिरण की तरह, खरीदे हुए नौकर की तरह, या जानवर की तरह अर्थात् वह सबसे अधम-गया गुजरा है।
टीका - 'एव' मिति पूर्वोक्तं स्त्रीणामादेशकरणं पुत्रपोषणवस्त्रधावनादिकं तद्बहुभिः संसाराभिष्वङ्गिभिः पूर्वं कृतं कृतपूर्व तथा परे कुर्वन्ति करिष्यन्ति च ये 'भोगकृते, कामभोगार्थमैहिकामुष्मिकापायभयमपर्यालोच्य आभिमुख्येन-भोगानुकूल्येन आपन्ना-व्यवस्थिता:सावद्यानुष्ठानेषु प्रतिपन्ना इतियावत्, तथा यो रागान्धःस्त्रीभिर्वशीकृतः स दासवदशङ्किताभिस्ताभिः प्रत्यपरेऽपि कर्मणि नियोज्यते, तथा वागुरापतितः परवशो मृग इव धार्यते, नात्मवशो भोजनादिक्रिया अपि कर्तुं लभते, 'प्रेष्य इव' कर्मकर इव क्रयक्रीत इव वर्चःशोधनादावपि नियोज्यते, तथाकर्तव्याकर्तव्यविवेकरहितत्था हिताहितप्राप्तिपरिहाशून्यत्वात् पशुभूत इव, यथा हि पशुराहारभयमैथुनपरिग्रहाभिज्ञ एव केवलम्, एवम सावपि सदनुष्ठानरहितत्वात्पशुकल्पः, यदिवा-स स्त्रीवशगो दासमृगप्रेष्य पशुभ्योऽप्य धमत्वान्न कश्चित्, एतदुक्तं भवति-सर्वाधमत्वात्तस्य तत्तुल्यं नास्त्येव येनासावुपमीयते, अथवा-न स कश्चिदिति, उभयभ्रष्टत्वात्, तथाहि-न तावत्प्रव्रजितोऽसौ सदनुष्ठानरहितत्वात्, नापि गृहस्थः ताम्बूलादिपरिभोगरहितत्वाल्लोचिकामात्र धारित्वाच्च, यदिवा ऐहिकामुष्मिकानुष्ठायिनां मध्ये न कश्चिदिति ॥१८॥ साम्प्रतमुतसंहारद्वारेण स्त्रीसङ्गपरिहारमाह
टीकार्थ - स्त्रियों की आज्ञा पालन करना, पुत्र का पोषण करना, वस्त्र प्रक्षालन करना आदि जो पूर्व वर्णित हैं, वे सब अनेक संसारी जीवों ने अतीत में किये हैं, वर्तमान में करते हैं और भविष्य में करेंगे । जो पुरुष कामात्मक विषय भोगों को प्राप्त करने हेतु ऐहिक तथा पारलौकिक भय को नहीं सोचते हुए-इस लोक और परलोक के बिगड़ने पर ध्यान नहीं देते हुए पाप युक्त कार्यों में प्रतिपन्न-प्रवृत्त रहते हैं, वे उन सभी कार्यों को करते हैं जिनका पहले वर्णन हुआ है । जो पुरुष राग से अन्धे हो गए हैं, स्त्रियों के अधीन हैं स्त्रियाँ निशंक होकर उन्हें नौकर की ज्यों पूर्व वर्णित कार्यों के अतिरिक्त और भी वैसे अनेक कार्यों में नियोजित करती हैं । जैसे जाल में पतित मृग परतन्त्र होता है, आत्मवश नहीं होता, भोजनादि क्रिया नहीं कर सकता उसी तरह स्त्री के वश में आया हुआ पुरुष परवश होता है, वह अपनी इच्छा के अनुरूप भोजन आदि क्रियाएं नहीं कर सकता । वह खरीदे हुए नौकर की तरह मल मूत्र आदि के शोधन में, सफाई में, उन्हें फैंकने आदि में लगाया जाता है, स्त्री के वश हुआ पुरुष करने योग्य और न करने योग्य कार्य के विवेक से रहित होता है । जैसे एक जानवर अपना हित पाने की ओर बढ़ना तथा अहित का त्याग करना नहीं जानता उसी तरह वह पुरुष हित अहित की उपादेयता और हेयता को नहीं समझता । अथवा स्त्री के वश में हुआ मनुष्य सेवक, हिरण, खरीदे हुए दास तथा पशु से भी अधम नीच या गया गुजरा होने के कारण कुछ भी नहीं है, नगण्य है । कहने का अभिप्राय यह है कि वह पुरुष सबसे नीच है । उसके समान कोई दूसरा नीच नहीं है । जिससे उसको उपमित किया जा सके वह उभयभ्रष्ट है, दोनों ओर से पतित है, सद्आचार से शून्य होने के कारण वह प्रव्रजित साधु नहीं है, और ताम्बूल-पान आदि पदार्थों के परिभोग न करने तथा लुंचन मात्र करने के कारण वह गृहस्थ भी नहीं है । ऐहिक इस लोक का तथा आमुष्मिक-परलोक का सम्पादन अनुष्ठान करने वाले पुरुषों में से वह कोई भी नहीं है, अर्थात् न उसका यह लोक सधता है, और न परलोक ही।
अब इस अध्ययन का उपसंहार करते हुए सूत्रकार स्त्री संग का त्याग करना बतलाते है ।
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