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The Sutra of the Sutrakritanga says: "This kind of speech is like the tip of a bamboo, weak and useless. It is beneficial for the householder to receive food, but not for the monk to receive it."
Commentary: This statement is like the tip of a bamboo, weak and useless, because it is not logical to say that a monk should not receive food from a sick monk. The author of the Sutra clarifies this by saying that it is beneficial for the monk to receive food from a householder, but not from another monk. This statement is weak and useless because the food received from a householder is often tainted with the suffering of living beings, while the food received from a monk is free from such taints.
The Sutra continues: "The Dharma-teaching is the purifier of the worldly, but it is not something that was established in the past."
Commentary: The Dharma-teaching is the purifier of the worldly, because it teaches the householder to give to the monk, but not the other way around. This is because the monk is purified by his own practice, and does not need to receive gifts from others. The author of the Sutra argues that this teaching was not established in the past, because it is not logical to say that the monk should not receive gifts from the householder. The author argues that the monk should receive gifts from the householder, because the householder is motivated by compassion and the monk is motivated by the desire to practice the Dharma.
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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् एरिसा जा वई एसा, अग्गवेणु व्व करिसिता । गिहिणो अभिहडं सेयं , भुंजिउं ण उ भिक्खुणं ॥१५॥ छाया - ईदृशी या वागेषा, अग्रवेणुरिव कर्षिता ।
ग्रहिणोऽभ्याहृतं श्रेयः, भोक्तुं न तु भिक्षूणाम् ॥ अनुवाद - गृहस्थ द्वारा अभ्याहृत-लाये हुए आहार का सेवन करना साधु के लिए श्रेयस्कर है, किन्तु साधु के द्वारा लाये हुए आहार का सेवन करना श्रेयस्कर नहीं है । यह कथन युक्तिरहित है । वह इसी प्रकार दुर्बल-सार रहित है जैसे बांस का आगे का भाग बहुत पतला व कमजोर होता है ।
___टीका - येयमीदृक्षा वाक् यथा यतिना ग्लानस्यानीय न देयमित्येषा अग्रे वेणुवद् वंशवत् कर्षिता तन्वी युक्त्यक्षमत्वात् दुर्बलेत्यर्थः, तामेव वाचम् दर्शयति-'गृहिणां' गृहस्थानां यदभ्याहृतं तद्यते क्तु 'श्रेयः' श्रेयस्करं न तु भिक्षूणां सम्बन्धीति, अग्रेतनुत्वं चास्या वाच एवं द्रष्टव्यं-यथा गृहस्थाभ्याहतं जीवोपमर्दैन भवति, यतीनां तूगमादिदोषरहिता मिति ॥१५॥
टीकार्थ - साधु को किसी ग्लान-रुग्ण साधु के लिए आहार लाकर नहीं देना चाहिए, यह कथन बांस के अग्रभाग के समान पतला अर्थात् युक्ति रहित होने के कारण दुर्बल सारहीन है । इसी वचन का शास्त्राकार दिग्दर्शन करते हुए कहते हैं कि - गृहस्थ द्वारा अभ्याहत-लाये हुए आहार का सेवन करना साधु के लिए श्रेयस्कर है, किन्तु साधु द्वारा लाये हुए आहार का सेवन करना श्रेयस्कर नहीं है । यह वचन बांस के अग्रभाग के समान कृश दुर्बल या सार रहित है, क्योंकि गृहस्थों द्वारा लाया हुआ आहार जीवों के उपमर्दन या व्यापादन से संपृक्त होता है तथा साधुओं द्वारा लाया हुआ आहार उदाम आदि दोष शून्य होता है ।
धम्मपन्नवणा जा सा, सारंभा ण विसोहिआ ।
ण उ एयाहिं दिट्ठीहिं, पुव्वमासिं पग्गप्पिअं ॥१६॥ छाया - धर्म प्रज्ञापना या सा सारम्भाणां विशोधिका ।
___ न त्वेताभि ईष्टिभिः पूर्व मासीत्प्रकल्पितम् ॥
अनुवाद - साधुओं का दान आदि द्वारा उपकार करना चाहिए । यह धर्म प्रज्ञापना-धर्मदेशना गृहस्थों के लिए श्रेयस्कर है, साधुओं के लिए नहीं । इसी कारण इसे पहले प्रतिपादित नहीं किया गया ।
टीका - किञ्च-धर्मस्य प्रज्ञापना-देशना यथा यतीनां दानादिनोकर्तव्यमित्ये वम्भूता या सा 'सारम्भाणां' गृहस्थानां विशोधिका, यतयस्तु स्वानुष्ठानेनैव विशुध्यन्ति, न तु तेषां दानाविकारोऽस्तीत्येतत् दूषयितुं प्रक्रमते'न तु' नैवैताभिर्यथा गृहस्थेनैव पिण्डदानादिना यतेगानाद्यवस्थायां मुपकर्तव्यं नतु यतिमिरेव परस्परमित्येवम्भूताभिः युष्मदीयाभिः 'दृष्टिभिः' धर्मप्रज्ञापनाभिः 'पूर्वम्' आदौ सर्वज्ञैः 'प्रकल्पिते' प्ररूपितं प्रत्याख्यापितमासीदिति, यतो नहि सर्वज्ञा एवम्भूतं परिफल्गुप्रायमर्थं प्ररूपयन्ति यथा-असंयतैरेषणाद्यनुपयुक्तै गर्लानादेवैयावृत्त्यं विधेयं न तूपयुक्तेन संयतेनेति, अपिच-भवद्भिरपि ग्लानोपकारोऽभ्युपगत एव, गृहस्थ प्रेरणादनुमोदनाच्च, ततो भवन्तस्तत्कारिण स्तत्प्रद्वेषिणश्चेत्थापन्नमिति ॥१६॥ अपिच -
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