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The text criticizes Jain ascetics, claiming their conduct is similar to householders. It uses the term "sambaddha-samakalpa" to describe this, meaning "bound by similar conduct" to householders. The text argues that ascetics are attached to each other, like householders are to their families, as evidenced by their caring for sick ascetics. It then uses the term "saragattha" to describe ascetics as being "attached to passion," implying they are not truly detached from worldly desires. This, the text argues, prevents them from achieving liberation from the cycle of rebirth.
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________________ उपसर्गाध्ययनं छाया - सम्बद्धसमकल्पास्तु, अन्योऽन्येषु मूर्छिताः । पिण्डपातं ग्लानस्य, यत्सारयत ददध्वञ्च । अनुवाद - वे अन्य तीर्थिक साधुओं पर आक्षेप लगाते हुए कहते हैं कि इनका कल्प-आचार गृहीजनों के तुल्य है । जैसे गृहस्थ अपने पारिवारिक जनों में परस्पर मूर्च्छित आसक्त रहते हैं । उसी प्रकार ये साधु हैं । तभी तो ये रुग्ण साधु के लिए भोजन लाकर देते हैं । _ टीका - सम्-एकीभावेन परस्परोपकार्योपकारितया च बद्धाः' पुत्रकलत्रादिस्नेहपाशैः सम्बद्धा-गृहस्थास्तैः समः-तुल्यः कल्पो-व्यवहारोऽनुष्ठानं येषान्ते सम्बद्धसमकल्पा-गृहस्थानुष्ठानतुल्यानुष्ठाना इत्यर्थः तथाहि-यथा गृहस्थाः परस्परोपकारेण माता पुत्रे पुत्रोऽपि मात्रादावित्येवं 'मूर्च्छिता' अध्युपपन्नाः, एवं भवन्तोऽपि 'अन्योऽन्यं' परस्परतः शिष्याचार्याघुपकारक्रियाकल्पनयामूर्च्छिताः, तथाहि-गृहस्थानामयं न्यायो यदुत-परस्मै दानादिनोपकार इति न तु यतीनो, कथ मन्योऽन्यं मूर्च्छिता इति दर्शयति-पिंडपातं भैक्ष्यं 'ग्लानस्य' अपरस्य रोगिणः साधोः यद्-यस्मात् 'सारेह' त्ति अन्वेषयत, तथा 'दलाह्य 'त्ति ग्लानयोग्यमाहारमन्विष्य तदुपकारार्थं ददध्वं, च शब्दादाचार्यादे वैयावृत्यकरणाद्युपकारेण वर्तध्वं, ततो गृहस्थ समकल्पा इति ॥९॥ साम्प्रतमुपसंहारव्याजेन दोष दर्शनायाह - टीकार्थ - जो परस्पर एकीभाव-उपकार्य, उपकारिता के रूप में बद्ध हैं, बंधे हुए हैं, वे संबद्ध कहे जाते हैं । गृहस्थ पुत्र, स्त्री आदि के स्नेह पाश में-आसक्ति के जाल में बंधे हुए होते हैं । इसलिए वे संबद्ध हैं, उन गृहीजनों के सदृश जिनका कल्प-आचार व्यवहार है, वे सम्बद्ध-सम कल्प कहे जाते हैं। दूसरे शब्दों में जो गृहस्थों के समान अनुष्ठान या कार्य करते हैं वे सम्बद्ध समकल्प हैं । गृहस्थ जिस प्रकार पारस्परिक उपकार द्वारा माता पुत्र में तथा पुत्र माता आदि में आसक्त-मोहित रहते हैं, उसी तरह आप भी शिष्य आचार्य आदि के प्रति उपकारपूर्ण कार्यों द्वारा आपस में मूर्च्छित आसक्त रहते हैं । यह गृहीजनों जैसा व्यवहार है । वे औरों का दान आदि द्वारा उपकार करते हैं, संयती पुरुषों का-साधुओं का यह व्यवहार नहीं है । आप साधु वृन्द किस प्रकार परस्पर मूर्च्छित-आसक्त रहते हैं, यह बतलाते हुए कहते हैं आप लोग रुग्ण साधु के लिए आहार की गवेषणा करते हैं, लाते हैं उसे देते हैं । यहां च शब्द का प्रयोग हुआ है । उसका तात्पर्य यह है कि आप आचार्य आदि का वैयावृत्य सेवा द्वारा उपकार करते हैं । अतः कल्प या आचार की दृष्टि से गृहस्थों के समान हैं । अब अन्य मतवादियों द्वारा कहे गये आक्षेप वचनों को समाप्त करते हुए सूत्रकार दोष निरुपणार्थ कहते हैं। एवं तुब्भे सरागत्था, अन्न मन्न मणुव्वसा । नट्ठसप्पहसब्भावा, संसारस्स अपारगा ॥१०॥ छाया - एवं यूयं सरामस्था, अन्योऽन्यमनुवशाः ।। नष्टसत्पथसद्भावाः, संसारस्यापारगाः ॥ अनुवाद - अन्य मतावलम्बी साधुओं के प्रति आक्षेप पूर्ण वचन बोलते हुए कहते हैं कि आप सरागस्थराग में, रागात्मक सम्बन्धों में अवस्थित हैं, पारस्परिक आसक्तियों से जुड़े हैं, सत्पथ और सद्भाव शून्य हैं, शुद्ध साधना मय मार्ग पर नहीं चलते, आपके भाव अशुद्ध हैं । आप संसार के भव चक्र के अपारगामी हैंउसे पार नहीं कर सकते । (231)
SR No.032440
Book TitleSutrakritang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
PublisherShwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size21 MB
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