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Translation AI Generated
Disclaimer: This translation does not guarantee complete accuracy, please confirm with the original page text.
English Translation (preserving Jain terms): In this verse, the word 'api' is used to indicate a possibility, i.e., it is possible that some unrighteous individuals with deluded intellect, overcome by attachment and aversion, seeing a Sadhu (ascetic) wandering in the unrighteous region, consider him to be a spy or a thief, and thus torment him. They bind the Sadhu with ropes, etc. and afflict him. The ignorant ones, lacking the discrimination between right and wrong, also revile the Sadhu with wrathful and harsh words, intimidating and threatening him. There, in that unrighteous region, the Sadhu, beaten with a staff, fist, or even a fruit, if he is still immature, remembers his kinsmen, just as a woman, driven by anger, fleeing from her home, remembers her relatives. Further, the verse states that these harsh, cruel, and unbearable sufferings faced by the Sadhu make him long for the comfort and security of his home, just as the woman, after being chased by thieves and other miscreants, becomes remorseful and remembers her family members.
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________________ श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् टीका - अपि संभावने, एके अनार्या आत्मदण्ड समाचारा मिथ्यात्वोपहत बुद्धयो रागद्वेषपरिगताः साधु 'पलियंतेसिं' ति अनार्य देश पर्यन्ते वर्तमानं 'चारो' त्ति चारोऽयं “चौरः" अयं स्तेन इत्येवं मत्वासुव्रतं कदथयन्ति, तथाहि-'बनन्ति' रज्वादिना संयमयन्ति 'भिक्षुकं' भिक्षण शीलं 'बाला' अज्ञाः सद सद्विवेक विकलाः तथा 'कषाय वचनैश्च' क्रोधप्रधानकटुकवचनैऽच निर्भर्त्सयन्तीति ॥१५॥ टीकार्थ - इस गाथा में 'अपि' शब्द संभावनार्थक है, अर्थात् ऐसा होना भी संभव है, यह सूचित करने के लिए इसका प्रयोग हुआ है जिससे आत्मा परलोक में दण्डित होती है, दु:ख प्राप्त करती है, ऐसे अनाचार सेवी मिथ्यात्व से विध्वस्त बुद्धि युक्त राग द्वेष के वशगत कई अनार्य पुरुष साधु को अनार्य देश के आस पास विहरण शील देखकर यह गुप्तचर है या चोर है ऐसा मानते हुए उसे उत्पीडित करते हैं, वे उसे रस्सी आदि से बांधकर व्यथित करते हैं । सत् और असत्-भले बुरे के विवेक से रहित वे अज्ञजन क्रोधपूर्ण कटुवचनों द्वारा साधु की निर्भत्सना करते हैं उसे डराते धमकाते हैं । तत्थ दंडेण संवीते, मुट्टिणा अदु फलेण वा । नातीणं सरती बाले, इत्थी वा कुद्धगामिणी ॥१६॥ छाया - तत्र दंडेन संवीतो मुष्टिनाऽथवा फलेन वा । ज्ञातीनां स्मरति बालः स्त्रीवत् क्रुद्धगामिनी ॥ अनुवाद - उस अनार्य देश के आस पास विहरण शील साधु अनार्य जनों द्वारा डंडे से, मुक्के से या किसी बड़े फल से ताडित किया जाता है तो वह अपने ज्ञाति जनों को-पारिवारिक बन्धुबान्धवों को उसी तरह याद करने लगता है जैसे क्रोधवश घर से भागी हुई स्त्री अपने ज्ञातिजनों को स्मरण करती है । टीका - अपि च-तत्र' तस्मिन्नार्य देशपर्यन्ते वर्तमानः साधुरनायैः ‘दण्डेन' यष्टिना मुष्टिना वा 'संवीत:' प्रहतोऽथवा 'फलेन वा' मातुलिङ्गादिना खङ्गादिना वा स साधुरेवं तैः कदर्यमानः कश्चिदपरिणत: 'बालः' अज्ञो ज्ञातीनां स्वजनानांस्मरति, तद्यथा-यद्यत्र मम कश्चित् सम्बन्धीस्यात् नाहमेवम्भूतांकदर्थनामवाप्नुयामिति दृष्टान्तमाह-यथा स्त्री क्रुद्धा सती स्वगृहात् गमनशीला निराश्रया मांसपेशीव सर्वस्पृहणीया तस्करादिभिरभिद्रुता सती जातपश्चातापा ज्ञातीनां स्मरति एवमसावपीति ॥१६॥ टीकार्थ - उस अनार्य देश के आसपास विचरणशील साधु को जब अनार्यजन लाठी, मुक्के, मातुलिंग आदि फल तथा खड्ग आदि से मारने लगते हैं, तब पीड़ा अनुभव करता हुआ वह अपरिपक्व कच्चा साधु अपने पारिवारिक जनों को याद करता है, वह सोचने लगता है कि यहाँ मेरा कोई सम्बन्धी इस जगह मौजूद होता तो मेरी यह बुरी हालत नहीं होती, इस संबंध में एक दृष्टान्त है-जैसे एक स्त्री क्रोध में आकर अपने घर से निकल पड़ती है, भाग जाती है । जिस तरह मांस सब लोगों के लोभ का आकर्षण का हेतु है, उसी तरह चोर, दुष्ट आदि उसे स्पृहणीय मानकर उसके पीछे हो जाते हैं तब वह पछताती हुई अपने परिवार के लोगों को याद करती है, उसी प्रकार वह अज्ञानी साधु भी उक्तस्थिति में अपने रिश्तेदार को याद करता है। एते भो कसिणा फासा, फरूसा दुरहियासया । हत्थी वा सरसंवित्ता, कीवा वसगया गिहं ॥१७॥त्तिबेमि -208)
SR No.032440
Book TitleSutrakritang Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSudarshanlal Acharya, Priyadarshan Muni, Chhaganlal Shastri
PublisherShwetambar Sthanakvasi Jain Swadhyayi Sangh
Publication Year1999
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & agam_sutrakritang
File Size21 MB
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