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## Vaitaliya Study Commentary - On the Fault of Criticizing Others
**Commentary:**
The commentary, citing the verse "Jo Paribhavaee" (He who despises), explains the faults of criticizing others. It states that anyone who despises another, who is not themselves, will be reborn in the cycle of transmigration (Samsara) for a long time, like a pot on a wheel. This is due to the karma generated by such actions. The word "Atha" here signifies "therefore," as the ultimate consequence of criticizing others is endless transmigration. Therefore, criticizing others is considered "Papika" (sinful) or "Doshavati" (faulty). It leads to a fall from a higher state to a lower one. This is illustrated by the example of a pig, and also a priest being reborn as a dog in the next life.
Understanding this, a Muni (Jain monk) should not be proud of their lineage, knowledge, or austerities. They should not consider themselves superior to others.
**Verse 3:**
**Shadow Verse:**
"Yashchapyanayaka syaad yo'pi cha preshyapreshyah syaat |
Yo mounpadam upastthito no lajet samatam sadacharet ||"
**Translation:**
"Even if one is without a master (anayaka) or is a servant of a servant (preshyapreshy), if they both embrace the path of restraint (mounpadam) and become a Muni, they should not feel ashamed and should always practice equality (samatam)."
**Commentary:**
This verse emphasizes the importance of humility and equality, even for those who are seemingly at the top or bottom of the social hierarchy. It states that even a king or a servant of a servant, if they embrace the path of Jainism, should not feel superior or inferior to each other. They should practice equality and respect.
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वैतालिय अध्ययन टीका - साम्प्रतं पर निन्दादोषमधिकृत्याह-'जो परिभवई' इत्यादि, यः कश्चिद विवेकी 'परिभवति' अवज्ञयति, परं जनं' अन्यं लोकम् आत्मव्यतिरिक्तं स तत्कृतेन कर्मणा 'संसारे' चतुर्गतिलक्षणे भवोदधावरघट्ट घटीन्यायेन 'परिवर्त्तते' भ्रमति 'महद्' अत्यर्थं महान्तं वा कालं, क्वचित् 'चिरम्' इति पाठः, 'अदु ति अथ शब्दो निपातः निपातानामनेकार्थत्वात् अत इत्यस्यार्थे वर्तते, यतः परपरिभवादात्यन्तिकः संसारः अतः 'इंखिणिया' परनिन्दा तु शब्दस्यैवकारार्थत्वात् 'पापिकैव' दोषवत्येव, अथवा स्वस्थानादधमस्थाने पातिका, तत्रेह जन्मनि सुधरो दृष्टान्तः, परलोकेऽपि पुरोहितस्यापि श्वादिषूत्पत्तिरिति, इत्येवं 'संख्याय' पर निन्दा दोषवती ज्ञात्वा मुनि र्जात्यादिभिः यथाऽहं विशिष्टकुलोद्भवः श्रुतवान् तपस्वी भवांस्तु मत्तो हीन इति न माद्यति ॥२॥
टीकार्थ – आगमकार ओरों की निन्दा करने से जो दोष होते हैं, उनका स्पष्टीकरण करते हुए कहते
जो विवेक रहित पुरुष किसी अन्य व्यक्ति का परिभव करता है-अवज्ञा करता है, अपमान करता हैवह उस परिभव से उत्पन्न हुए कर्म के फलस्वरूप बहुत समय तक चतुर्गतिमय संसार में रहट के घड़ों की तरह चक्कर काटता रहता है । कहीं कहीं 'चिरं' पाठ मिलता है । यहां जो 'अथ' शब्द आया है वह निपात सूचक है । निपात अनेक अर्थों के द्योतक होते हैं । अतः 'अथ' यहां अतः शब्द के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। दूसरों का परिभव या अपमान करने के फलस्वरूप आत्यन्तिक-अत्यधिक भवभ्रमण करना होता है । यही कारण है कि परनिन्दा पापिका-पापपूर्ण हैं या दोषवती-दोषपूर्ण है । वह जीव को अपने उत्तम स्थान से निम्न स्थान में पहुँचा देती है । यहां 'तु' शब्द एवं के अर्थ में आया है । इसका तात्पर्य यह है कि दूसरों की निन्दा पाप को ही पैदा करती है । परनिन्दा पाप को उत्पन्न करने वाली है । इस संबंध में सूअर का एक दृष्टान्त है, एक ऐसा दृष्टान्त भी है कि एक पुरोहित आगे के भव में कुत्ते की योनि में जन्म लेता है । दूसरों की निन्दा करना पाप का हेतु है । यह समझकर मुनि को अपने विशिष्ट कुल में उत्पन्न होने, शास्त्रवेत्ता होने, तपस्वी होने का मद नहीं करना चाहिये । किसी को यह भी नहीं बोलना चाहिये कि तुम मुझसे हीन हो-तुच्छ हो।
जे यावि अणायगे सिया, जे विय पेसगपेसए सिया ।
जे मोणपयं उवट्टिए, णो लजे समयं सयाचरे ॥३॥ छाया - यश्चाप्यनायकः स्याद् योऽपि च प्रेष्यप्रेष्यः स्यात् ।
यो मौनपद मुपस्थितो नो लजेत समतां सदा चरेत् ॥ अनुवाद - एक ऐसा व्यक्ति जो अनायक है-जिसका कोई दूसरा स्वामी नहीं है, जो चक्रवर्ती है, एक ऐसा व्यक्ति है जो प्रेष्य प्रेष्य है-नौकर का भी नौकर है, वे दोनों ही यदि संयम के पथ पर आते हैंमुनिधर्म स्वीकार करते हैं तो उन्हें परस्पर लज्जा-उच्च हीन भाव छोड़कर समभाव से वर्तन करना चाहिये ।
टीका-मदाभावे च यद्विधेयं तद्दर्शयितुमाहं - यश्चापिकश्चिदास्तांतावद् अन्यो न विद्यते नायकोऽस्येत्यनायकः -स्वयं प्रभुश्चक्रवर्त्यादि: स्यात्' भवेत्, यश्चापि प्रेष्यस्यापि प्रेष्यः-तस्यैव राज्ञः कर्मकरस्यापि कर्मकरः,य एवम्भूतो मौनीन्द्रं पद्यते-गम्यते मोक्षो येन तत्पदं-संयस्तम् उप-सामीप्येन स्थितः उपस्थित:-समाश्रितः सोऽप्यलज्जमान उत्कर्षमकुर्वन् वा सर्वा:क्रियाः-परस्परतो वन्दनप्रति वन्दनादिकाः विधत्ते, इदमुक्तं भवति
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