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________________ सत्ताप्रकरण ] [ ३९५ समय कम दो आवलिका काल से बंधे हुए ही दलिक विद्यमान पाये जाते हैं, अन्य नहीं। बंधादि के विच्छिन्न होने के समय जघन्य योग वाले जीव के द्वारा जो बांधा गया दलिक है, वह बंधावलिका के व्यतीत होने पर दूसरी आवलिका के द्वारा अन्य प्रकृति में संक्रान्त होने के चरम समय में जो संक्रान्त होगा, परन्तु अभी संक्रान्त नहीं हुआ है, वही संज्वलन क्रोध का जघन्य प्रदेशसत्वस्थान है। इसी प्रकार दूसरे योगस्थानवी जीव के द्वारा बंधादि के विच्छेद होने के समय में बद्धकर्म है, उसका भी दलिक चरम समय में दूसरा प्रदेशसत्वस्थान है। इस प्रकार तब तक कहना चाहिये, जब तक उत्कृष्ट योगस्थानवर्ती होते हुए बंधादि के विच्छेद समय में जो बद्ध दलिक है उसका दलिक चरम समय में सर्वोत्कृष्ट अंतिम प्रदेशसत्वस्थान होता है। इस प्रकार जघन्य योगस्थान को आदि करके जितने-जितने योगस्थान होते हैं, उतने प्रदेशसत्वस्थान भी चरम समय में पाये जाते हैं। इन सर्व प्रदेशसत्वस्थानों का समुदाय एक स्पर्धक जानना चाहिये। इसी प्रकार बंध आदि के विच्छेद होने के द्विचरम समय में जघन्य योग आदि के द्वारा जो कर्म बंधता है, उसमें भी दूसरी आवलिका के चरम समय में पहले के समान उतने ही प्रदेशसत्वस्थान जानना चाहिये। केवल दो स्थिति में उत्पन्न होने वाले वे प्रदेशसत्वस्थान समझना चाहिये, क्योंकि बंधादि विच्छेद के चरम समय में बद्ध दलिक भी उस समय दो समय की स्थिति वाले पाये जाते हैं। इन सबका समुदाय दूसरा स्पर्धक है। इसी प्रकार बंधादि विच्छेद के त्रि चरम समय में जघन्य योग आदि के द्वारा जो कर्म बांधे जाते हैं, वहां पर भी दूसरी आवलिका के अंतिम समय में पहले के समान ही उतने प्रदेशसत्वस्थान होते हैं। केवल इन्हें तीन स्थितियों में होने वाले जानना चाहिये। क्योंकि उस समय बंध आदि के विच्छेद होने के चरम समय में बंधे हुए दलिक का और द्विचरम समय में बंधे हुए का और त्रिचरम समय में बंधे हुए दलिक का भी तीन समय की स्थिति वाला दलिक पाया जाता है। यह तीसरा स्पर्धक है। इस प्रकार दो समय कम दो आवलिका काल में जितने समय होते हैं, उतने ही स्पर्धक होते हैं। इसी बात को बताने के लिये गाथा में अहिगाणि य आवलिगाए इत्यादि पद दिया है। ये समस्त योगस्थान एक समुदाय रूप से विवक्षित होने पर सकल योगस्थानों का समुदाय कहलाते हैं । यह योगस्थान समुदाय एक आवलिका में पाये जाने वाले समयों में से दो समय कम शेष समयों से गुणित किया जाता है और गुणित करने पर जितने सम्पूर्ण योगस्थानों के समुदाय प्राप्त
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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