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________________ ३९६ ] [ कर्मप्रकृति होते हैं, उतने ही अधिक स्पर्धक प्रथम स्थिति के विच्छिन्न होने पर पाये जाते हैं। जो इस प्रकार समझना चाहिये - बंधादि के विच्छेद होने पर अनन्तर समय में दो आवलिका के समय प्रमाण स्पर्धक पाये जाते हैं, यह पूर्व में कहा जा चुका है और बंधादि के व्यवच्छेद से ऊपर आवलिका मात्र काल वाली प्रथमस्थिति रहती हैं। इसलिये उस आवलिका प्रमाण वाली प्रथमस्थिति के संक्रम द्वारा विच्छिन्न होने पर उससे आगे आवलिका के समय प्रमाण स्पर्धक अन्य प्रकृतियों में संक्रमण द्वारा विच्छिन्न हो जाते हैं। अतएव उनकी पृथक् गणना नहीं की गई है। इसलिये उनके विच्छिन्न होने पर प्रथमस्थिति के बीतने पर शेष दो समय कम दो आवलिका के समय प्रमाण ही अधिक स्पर्धक पाये जाते हैं, अन्य नहीं पाये जाते हैं तथा – वेएसु फड्डगदुर्ग, अहिगा पुरिसस्स वे उ आवलिया। दुसमयहीणा गुणिया जोगट्ठाणेहिं कसिणेहिं ॥४६॥ शब्दार्थ – वेएसु - वेदों में, फड्डगदुर्ग – दो स्पर्धक, अहिगा – अधिक, पुरिसस्सपुरुषवेद के, वे – दो, उ – किन्तु, आवलिया - आवलिका, दुसमयहीणा – दो समय हीन, गुणिया – गुणा करने पर, जोणट्ठाणेहिं – योगस्थानों के द्वारा, कसिणेहिं – समस्त। ____ गाथार्थ – वेदों में दो दो स्पर्धक होते हैं। किन्तु पुरुषवेद के स्पर्धक समस्त योगस्थानों के द्वारा दो समय हीन दो आवलिका को गुणा करने पर जितने होते हैं, उतने ही अधिक भी जानना चाहिये। विशेषार्थ – वेएसु अर्थात स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद में प्रत्येक के दो दो स्पर्घक होते हैं जिनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है - कोई अभवसिद्धिकप्रायोग्य जघन्य प्रदेशसत्व वाला जीव त्रसों के मध्य में उत्पन्न हुआ १. इसका आशय है कि - पूर्व में जो अन्त्य प्रदेशोदयावलिका और स्थितिघात के मिलकर जितने स्पर्धक आवलिका प्रमाण कहे हैं, वे सर्वस्पर्धक दीर्घकाल पूर्व बांधे हुये सत्तागत दलिक के एक एक प्रदेश की वृद्धि से थे और यह दो समयोन दो आवलिका के स्पर्धक नवीन बद्ध दलिक के योगस्थान की निरन्तर वृद्धि से और प्रदेशों की अंतर वृद्धि से बना हुआ है, तो इन दोनों में से कौन सा स्पर्धक कितना अधिक है ? तो इसका उत्तर यह है कि प्रदेशोदयावलिका और स्थितिघात संबंधी स्पर्धकों से योगस्थानकृत बद्ध दलिक संबंधी स्पर्धक दो समयोन आवलिका के समय प्रमाण अधिक हैं। क्योंकि उदयावलिका और स्थितिघात संबंधी स्पर्धक एक आवलिका प्रमाण हैं और बद्ध सत्दलिक के स्पर्धक दो समयोन दो आवलिका प्रमाण हैं । अतः बद्धदलिक स्पर्धक दो समयोन आवलिका समय जितने अधिक हैं।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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