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________________ ३९४ ] [ कर्मप्रकृति हो जाता है, तथा द्विचरम समय वेदक के द्वारा जो बद्ध दलिक हैं, वे भी बंधावलिका के व्यतीत होने पर अन्य आवलिका मात्र काल में संक्रान्त हो जाते हैं। अतः आवलिका के चरम समय में वह अकर्मी हो जाता है। इस प्रकार जो कर्म जिस समय में बंधा है, वह कर्म उस समय से लेकर दूसरी आवलिका के चरम समय में कर्मरहित हो जाता है और ऐसा होने पर बंध आदि के अभाव होने के प्रथम समय में दो समय कम दो आवलिकाबद्ध ही दलिक विद्यमान पाये जाते हैं और शेष नहीं पाये जाते हैं। अब उक्त कथन को असत्कल्पना द्वारा स्पष्ट करते हैं - यद्यपि एक आवलिका यथार्थ में असंख्यात समयात्मक होती है, तथापि यहां असत्कल्पना के चार समय वाली मानते हैं। इसलिये बंधादि के व्यच्छेद होने के अंतिम समय से पूर्व आठवें समय में जो बद्ध कर्मदलिक है वह कल्पित चार समय वाली बंधावलिका के व्यतीत होने पर दूसरी चार समय वाली आवलिका के द्वारा अन्य प्रकृतियों में संक्रान्त होता हुआ बंधादि के विच्छेद के समय रूप चरम समय में स्वरूप से सर्वथा नहीं पाया जाता है। क्योंकि वह अन्य प्रकृतियों में सर्वात्मक रूप से संक्रान्त हो गया है। सातवें समय में जो बद्ध-दलिक है, वह भी चार समय वाली आवलिका के अतिक्रान्त होने पर दूसरी चार समय वाली आवलिका काल में अन्यत्र संक्रान्त होता हुआ बंधादि के विच्छेद होने के अनन्तर समय में स्वरूप से नहीं पाया जाता है। क्योंकि वह अन्य प्रकृतियों में सर्वात्मक रूप से संक्रान्त हो चुका है। किन्तु शेष छटे, पांचवें आदि समयों में बंधा हुआ दलिक तो पाया जाता है। इसलिये बंधादि के विच्छिन्न होने पर अनन्तर समय में दो ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० ० व. ० ० ० ० ० ० ० प्रदेश ००००००० ० ० सक्रान्त
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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