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अनादि प्ररूपणा करते हैं
दिट्ठिदुगाउगछग्ग तितंणुचोद्दसगं च तित्थगरमुच्चं । दुविहं पढमकसाया, होंति चउद्धा तिहा सेसा ॥ २ ॥ शब्दार्थ - दिट्टिदुगा - दृष्टिद्विक (दर्शनमोहनीयद्विक), आउग आयुचतुष्क, छग्गतिगतिषट्क, तणुचोद्द सगं - तनुचतुर्दशक ( वैक्रियसप्तक, आहारकसप्तक), च - और, तित्थगरंतीर्थकर, उच्चं - उच्चगोत्र, दुविहं – दो प्रकार का, पढमकसाया प्रथम कषाय (अनन्तानुबंधी कषाय ) होंति होता है, चउद्धा चार प्रकार का, तिहा
तीन प्रकार का सेसा - शेष
कर्मों का ।
[ कर्मप्रकृति
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गाथार्थ दृष्टिद्विक, आयुचतुष्क, गतिषट्क, तनुचतुर्दशक तीर्थंकर और उच्चगोत्र का सत्कर्म दो प्रकार का है। प्रथम कषाय का सत्कर्म चार प्रकार का है और शेष कर्मप्रकृतियों का सत्कर्म तीन प्रकार का है।
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विशेषार्थ - दृष्टिद्विक अर्थात सम्यक्त्वमोहनीय और सम्यग्गमिथ्यात्वमोहनीय, चारों आयुकर्म, छग्गति अर्थात् मनुष्यद्विक, देवद्विक और नरकद्विक, तनुचतुर्दशक अर्थात् वैक्रियसप्तक और आहारकसप्तक तथा तीर्थकर नाम और उच्चगोत्र, इन अट्ठाईस प्रकृतियों की सत्ता दो प्रकार की है, यथा सादि और अध्रुव । ये प्रकृतियां अध्रुवसत्ताक होने से इनको सादि और अध्रुव जानना चाहिये ।
प्रथम कषाय अर्थात् अनन्तानुबंधीकषायचतुष्क की अपेक्षा चार प्रकार की हैं, यथा सादि-अनादि, ध्रुव और अध्रुव । जिसका स्पष्टीकरण इस प्रकार है. यह कषाय सम्यग्दृष्टि के द्वारा पहले उद्वर्तित होती है । तत्पश्चात् मिथ्यात्व को प्राप्त हुए जीव के द्वारा मिथ्यात्व के निमित्त से बंधती हैं तब सादि है। उस स्थान को अप्राप्त जीव के अनादि है । ध्रुव और अंध्रुव विकल्प पूर्व के समान क्रमशः अभव्य और भव्य की अपेक्षा जानना चाहिये ।
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शेष एक सौ छब्बीस प्रकृतियां सत्ता की अपेक्षा तीन प्रकार की हैं, यथा अनादि, ध्रुव और अध्रुव । इनमें से अनादित्व तो इन प्रकृतियों के ध्रुवसत्ताक होने की अपेक्षा से है और ध्रुवत्व, अध्रुवत्व पूर्ववत् अभव्य और भव्य की दृष्टि से क्रमशः जानना चाहिये ।
इस प्रकार सादि अनादि प्ररूपणा का विचार किया गया ।
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