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________________ १० : सत्ताप्रकरण उदय के कथन के अनन्तर क्रमप्राप्त सत्ता का विवेचन किया जा रहा है। इसमें तीन अर्थाधिकार हैं - 1. भेदप्ररूपणा, 2. सादि - अनादिप्ररूपणा ओर 3. स्वामित्वप्ररूपणा। इनमें से भेद और सादि - अनादि प्ररूपणा का निरूपण करते हैं - रूपणा मूलुत्तरपगइगयं, चउव्विहं संतकम्ममवि नेयं। धुवमध्धुवणाईयं, अट्ठण्हं मूल पगईणं॥१॥ शब्दार्थ - मूलुत्तरपगइगयं – मूल और उत्तर प्रकृतिगत, चउव्विहं - चार प्रकार, संतकम्ममवि - सत्कर्म भी, नेयं - जानना चाहिये, धुवमध्धुवणाईयं – ध्रुव, अध्रुव और अनादि, अट्ठण्हं - आठों, मूलपगईणं - मूल प्रकृतियों का। गाथार्थ – मूल और उत्तर प्रकृतिगत सत्कर्म (सत्व) भी चार प्रकार का जानना चाहिये। इनमें आठों मूल प्रकृतियों का सत्कर्म ध्रुव, अध्रुव और अनादि है। विशेषार्थ – सत्कर्म (सत्व, सत्ता) दो प्रकार का है – मूल प्रकृतिगत सत्कर्म और उत्तर प्रकृतिगत सत्कर्म। मूल प्रकृतिगत सत्कर्म आठ प्रकार का है, यथा – ज्ञानावरण, दर्शनावरण इत्यादि। उत्तर प्रकृतिगत सत्कर्म एक सौ अट्ठावन प्रकार का है, यथा - मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण इत्यादि। पुनः यह प्रत्येक भी चार प्रकार का है, यथा – १. प्रकृति सत्कर्म, २. स्थिति सत्कर्म, ३. अनुभाग-सत्कर्म और ४. प्रदेश सत्कर्म। ___इस प्रकार भेद प्ररूपणा का विचार किया गया। सादि - अनादिप्ररूपणा अब सादि - अनादिप्ररूपणा करते हैं। ___ इस सादि - अनादिप्ररूपणा का प्रारंभ करने के लिये गाथा में "ध्रुव-मध्ध्रुव" इत्यादि पद दिया है, जिसका आशय यह है कि आठों मूल प्रकृतियों का सत्कर्म तीन प्रकार का है, यथाध्रुव, अध्रुव और अनादि। इन तीनों में अनादित्व तो सभी कर्मों का सदैव सद्भाव पाये जाने से है तथा ध्रुव और अध्रुव विकल्प क्रमशः अभव्यों और भव्यों की अपेक्षा से जानना चाहिये। मूल प्रकृतियों की सादि अनादि प्ररूपणा करने के पश्चात अब उत्तर प्रकृतिों को सादि
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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