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________________ सत्ताप्रकरण ] [ ३५१ स्वामित्व प्ररूपणा अब स्वामित्व वक्तव्य है। वह दो प्रकार का है – एक एक प्रकृतिगत और प्रकृतिस्थान गत। इन दोनों में से पहले एक एक प्रकृतिगत स्वामित्व का कथन करते हैं - छउमत्थंता चउदस, दुचरम समयंमि अत्थि दो निहा। बद्धाणि ताव आऊणि वेइयाई ति जा कसिणं॥३॥ शब्दार्थ - छउमत्थंता - छमस्थ के अंतिमसमय तक, चउदस – चौदह, दुचरमसमयंमि - द्विचरम समय में, अत्थि – होती हैं, दो निद्दा - निद्राद्विक, बद्धाणि - बद्ध, ताव – तब तक, आऊणि - आयुचतुष्क, वेइयाइंति - वेदन की जाती हैं, जा - तक, कसिणं- कृत्स्न पूर्ण। गाथार्थ - छद्मस्थ के चौदह प्रकृतियां ज्ञानावरणपंचक, दर्शनावरणचतुष्क और अंतरायपंचक अंतिम समय तक और निद्राद्विक द्विचरम समय तक होती हैं। किसी भी जीव के बद्ध आयुचतुष्क में से कोई भी आयु जहां तक वेदन की जाती हैं, वहां तक रहती है। विशेषार्थ – ज्ञानावरणपंचक, अन्तरायपंचक और दर्शनावरणचतुष्क ये चौदह प्रकृतियां छद्मस्थ के अन्त तक अर्थात् क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ के अन्तिम समय तक विद्यमान रहती हैं, इसके आगे क्षय हो जाने से इनका अभाव है। इसी प्रकार आगे कही जाने वाली प्रकृतियों में भी जहां तक जिसका सद्भाव बतलाया जाये, उस गुणस्थान से आगे उनका अभाव जानना चाहिये। दो निद्रायें अर्थात् निद्रा और प्रचला क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ गुणस्थान के द्विचरम समय तक विद्यमान रहती हैं। - चारों ही आयु बंधने के पश्चात् तब तक विद्यमान रहती हैं जब तक की सम्पूर्ण रूप से उनका वेदन नहीं हो जाता है तथा – तिसु मिच्छत्तं नियमा, अट्ठसु ठाणेसु होई भइयव्वं । आसाणे सम्मत्तं, नियमा सम्मं दससु भजं ॥४॥ शब्दार्थ – तिसु - तीन, मिच्छत्तं - मिथ्यात्व, नियमा - निश्चित रूप से, अट्ठसुठाणेसु- आठ गुणस्थानों में, होइ - होता है, भइयव्वं - (भजितव्य), भजना, आसाणेसास्वादन में, सम्मत्तं – सम्यक्त्व, नियमा - नियम से, सम्मं – सम्यक्त्व, दससु – दस में, भजं - भजनीय।
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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