SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 367
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उदयप्रकरण ] [ ३३३ संभव है। जैसा कि कहा है - झति गुणाओ पडिए मिच्छत्तगयम्मि आइमा तिन्नि। लब्भिंति न सेसाओ, जं झीणासु असुभमरणं॥' अर्थात् ऊपर के गुणस्थानों से शीघ्र पतित और मिथ्यात्वगत जीव में आदि की तीनों गुणश्रेणियां पाई जाती हैं, शेष नहीं। किन्तु उनके क्षीण होने पर अशुभमरण संभव है। यहां उत्कृष्ट प्रदेशोदय - स्वामित्व में गुणश्रेणी शीर्ष के उदय में वर्तमान गुणितकर्मांश जीव से प्रयोजन है। इस प्रकार सामान्य से उत्कृष्ट प्रदेशोदय - स्वामित्व के अधिकारी जीव का संकेत करने के बाद अब पृथक् पृथक् प्रकृतियों के स्वामियों का कथन करते हैं - आवरणविग्घमोहाण, जिणोदइयाण वा वि नियगंते। लहुखवणाए ओही - णणोहिलद्धिस्स उक्कस्सो ॥११॥ शब्दार्थ - आवरणविग्घमोहाण - आवरणद्विक अन्तराय मोह का, जिणोदइयाण - जिनोदयिक प्रकृतियों का, वा - और, वि - भी, नियगंते - अपने अपने उदय के अंत में, लहुखवणाए - लघुकाल में (शीघ्र ही), क्षपणा के लिये उद्यत, ओहीण - अवधिद्विक का, अणोहिलद्धिस्स – अवधिलब्धिरहित के, उक्कस्सो - उत्कृष्ट । गाथार्थ – लघुकाल में (शीघ्र ही)क्षपणा के लिये उद्यत जीव के आवरणद्विक, अन्तरायपंचक, मोहकर्म का और जिनोदयिक प्रकृतियों का भी उत्कृष्ट प्रदेशोदय अपने अपने उदय के अंत में तथा अवधिद्विक का अवधिलब्धि से रहित जीव के होता है। विशेषार्थ – आवरण अर्थात् पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, विघ्न अर्थात् पांच अन्तराय, इन चौदह प्रकृतियों का उत्कृष्ट प्रदेशोदय शीघ्र ही कर्मक्षपण के लिये उद्यत हुये जीव के पाया जाता है। क्षपणा दो प्रकार की होती है - लघुक्षपणा और चिरक्षपणा। इनमें से जो मनुष्य जन्म लेने के पश्चात् सात मास अधिक आठ वर्ष की अवस्था में संयम को धारण करने के अनन्तर मुहूर्त काल से क्षपकश्रेणी पर चढ़ता है, उसकी कर्मक्षपणा, लघुक्षपणा कहलाती है और जो जन्म लेने के पश्चात् दीर्घकाल के बाद संयम को अंगीकार करता है और संयम को स्वीकार करने के पश्चात् बहुत काल बाद क्षपकश्रेणी प्रारम्भ करता है उसकी कर्मक्षपणा को चिरक्षपणा कहते हैं। इस क्षपणा से बहुत " १. पंचसंग्रह पंचमद्वार गाथा १०९
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy