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________________ ३३२ ] [ कर्मप्रकृति दूसरी इत्यादि उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित अधिक प्रदेश वाली हैं। जबकि कालापेक्षा अयोगिकेवली प्रत्ययिक गुणश्रेणी से नीचे की गुणश्रेणियां अधिक अधिक काल वाली हैं अर्थात् ऊपर से नीचे की ओर पृथक् पृथक् उत्तरोत्तर विशालतर काल वाली हैं, उनमें काल अधिक लगता है। प्रश्न – सम्यक्त्वोत्पादप्रत्ययिक गुणश्रेणी से आगे आगे की गुणश्रेणियों में दलिक उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित कैसे प्राप्त होते हैं ? उत्तर - सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाला जीव मिथ्यादृष्टि होता है किन्तु सम्यक्त्व की उत्पत्ति होने पर पूर्व की गुणश्रेणी की अपेक्षा असंख्यात गुणित दलिक वाली गुणश्रेणी हो जाती है, क्योंकि वह विशुद्धि वाला है। उससे देशविरत की गुणश्रेणी असंख्यात गुणित दलिक वाली है। क्योंकि सम्यग्दृष्टि की अपेक्षा देशविरत के अधिक विशुद्धता हैं । उससे भी सर्वविरत की गुणश्रेणी असंख्यात गुणित दलिक वाली होती है। क्योंकि देशविरत से सर्वविरत की विशुद्धि और भी अधिक होती है। उससे भी संयत के अनन्तानुबंधी की विसंयोजना में गुणश्रेणी असंख्यात गुणी दलिक वाली होती है। क्योंकि उसके विशुद्धि और भी अधिक होती है। इस प्रकार उत्तरोत्तर विशुद्धि के प्रकर्ष से यथोत्तर असंख्यात गुणित दलिकों वाली समझना चाहिये। कौनसी गुणश्रेणी किस गति में पाई जाती है ? अब इसका निरूपण करते हैं - तिन्नि वि पढमिल्लाओ, मिच्छत्तगए वि होज अन्न भवे। पगयं तु गुणियकम्मे, गुणसेढीसीसगाणुदये॥१०॥ . शब्दार्थ – तिन्निवि – तीनों ही, पढमिल्लाओ – पहले से लेकर, मिच्छत्तगए - मिथ्यात्व में जाकर, होज – होती हैं, अन्नभवे – अन्य भव में, पगयं – प्रकृत में, तु - और, गुणियकम्मे – गुणितकर्मांश, गुणसेढीसीसगाण - गुणश्रेणी के शीर्ष में, उदये – उदय में। गाथार्थ – पहले से लेकर तीनों ही गुणश्रेणियां मिथ्यात्व में जाकर तत्काल मरने वाले जीव के अन्यभव में होती हैं और यहां प्रकृत प्रदेशोदय - स्वामित्व में गुणश्रेणीशीर्ष पर वर्तमान गुणितकांशिक जीव का अधिकार है। . विशेषार्थ – आदि की तीनों ही अर्थात् सम्यक्त्वोत्पाद देशविरति और सर्वविरतिनिमित्तक गुणश्रेणियां शीघ्र ही मिथ्यात्व को प्राप्त और अप्रशस्त मरण से शीघ्र ही मरे हुये जीव के अन्य भव में अर्थात् नारक आदि भव में कुछ काल तक उदय की अपेक्षा पायी जाती हैं किन्तु शेष गुणश्रेणियां नारकादिरूप परभव में नहीं पाई जाती हैं। क्योंकि नारकादि भव अप्रशस्त मरण से प्राप्त होता है। शेष गुणश्रेणियों के होने पर अप्रशस्त मरण संभव नहीं है, किन्तु उन गुणश्रेणियों के क्षीण हो जाने पर ही
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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