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________________ उपशमनाकरण ] [ २९७ है। उदीरणावलिका के चरम समय में संज्वलन कषायों का स्थितिबंध चार मास का होता है और शेष कर्मों का स्थितिबंध संख्यात सहस्र वर्षों का होता है। उस समय संज्वलन क्रोध के बंध, उदय और उदीरणा का विच्छेद हो जाता है । अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण क्रोध उपशांत हो जाते हैं। उस समय एक आवनिका के और समयोन दो आवलिका काल बद्ध दलिक को छोड़ कर संज्वलन क्रोध के शेष अन्य सर्व दलिक उपशांत हो जाते हैं और वह प्रथमस्थिति संबंधी एक चरमावलिका भी स्तिबुकसंक्रमण से संज्वलन मान में प्रक्षिप्त कर दी जाती है तथा एक समय कम दो आवलिका काल से बंधा हुआ दलिक पुरुषवेद में कहे गये प्रकार से उपशांत करता है और संक्रान्त करता है। इसी तरह के क्रम से शेष कषायों को भी अर्थात् तीनों प्रकार के मान, तीनों प्रकार की माया और तीनों प्रकार के लोभ को उपशमाता है। वह इस प्रकार जानना चाहिये कि - अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्याख्यानावरण और संज्वलन के भेद से मान माया और लोभ तीन तीन प्रकार के होते हैं। जिनको वह उपशमाता है। इनमें संज्वलन की उपशमना पुरुषवेद के समान तथा अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण मान आदि कषायों की उपशमना छह नोकषायों के समान जानना चाहिये। विशेष यह है कि 'पढमठिइ आलिगा अहिगा' अर्थात् संज्वलनों की प्रथमस्थिति में पुरुषवेद की अपेक्षा एक आवलिका अधिक होती है। वह इस प्रकार छह नोकषायों के उपशांत हो जाने पर पुरुषवेद की प्रथमस्थिति एक समय मात्र अनुपशांत थी।अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण मान आदि के उपशांत होने पर संज्वलन आदि की प्रथमस्थिति का एक आवलिका काल अनुपशांत था। अब इस संक्षिप्त संकेत का विशेष रूप से विस्तार के साथ विचार करते हैं - जिस समय संज्वलन क्रोध का बंध, उदय और उदीरणा विच्छिन्न हुई, उसी समय ही संज्वलन मान की द्वितीय स्थिति से दलिक का अपकर्षण कर प्रथम स्थिति को बांधता है और उसे वेदता है। तब उस उदय समय में अल्प दलिक प्रक्षेप करता है। द्वितीय स्थिति में असंख्यात गुणित दलिक और तृतीय स्थिति में उससे भी संख्यात गुणित दलिक निक्षेप करता है । इस प्रकार प्रथमस्थिति के अंतिम समय तक जानना चाहिये। प्रथमस्थिति के चरम समय में ही संज्वलन मान का स्थितिबंध चार मास का होता है और ज्ञानावरण आदि शेष कर्मों का स्थितिबंध संख्यात सहस्रों वर्ष का होता है। इसी समय ही तीनों मान कषायों का एक साथ उपशम आरंभ करता है। संज्वलन मान की प्रथमस्थिति में एक समय कम तीन आवलिका काल शेष रहने पर अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यानावरण मान के दलिक को संज्वलन माया आदि में प्रक्षिप्त करता है। दो आवलिका काल शेष रह जाने पर आगाल विच्छिन्न हो जाता है और केवल उदीरणा ही होती है और वह भी आवलिका के चरम समय तक होती है। उस समय प्रथमस्थिति की एक आवलिका शेष रहती है। उस समय में संज्वलनों का
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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