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________________ २८८ ] [ कर्मप्रकृति से एक ही तीस तीस कोडाकोडी सागरोपम स्थिति वाले ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय कर्म के नीचे मोहनीय की स्थिति असंख्यात गुणी हीन होती है। जिसका आशय यह है कि - पहले मोहनीय का सत्व ज्ञानावरण आदि कर्मों के ऊपर असंख्यात गुणा था जो अब एक साथ ही उनके नीचे असंख्यात गुणाहीन हो गया । इस स्थान का अल्पबहुत्व इस प्रकार है - नाम और गोत्र कर्म का स्थितिसत्व सबसे अल्प होता है। उससे मोहनीय का असंख्यात गुणा होता है, उससे भी ज्ञानावरणादि चारों कर्मोंका स्थितिसत्व असंख्यातगुण होता है, किन्तु स्वस्थान में परस्पर समान होता है । तत्पश्चात् सहस्रों स्थितिबंधों के बीतने पर 'वीसगहेट्ठाए' अर्थात् मोहनीय का स्थितिबंध एक साथ ही बीस कोडाकोडी सागरोपम स्थिति वाले नाम और गोत्र कर्म के नीचे असंख्यात गुणाहीन हो जाता है । इस स्थान संबंधी स्थितिबंध का आश्रय करके अल्पबहुत्व इस प्रकार है मोहनीय का स्थितिबंध सबसे अल्प होता है, उससे नाम और गोत्र का स्थितिबंध असंख्यात गुणा है, किन्तु स्वस्थान में परस्पर समान होता है, उससे ज्ञानावरण आदि चारों कर्मों का स्थितिबंध असंख्यात गुणा है किन्तु स्वस्थान में परस्पर समान होता है । — तत्पश्चात कितने ही सहस्र स्थितिबंधों के व्यतीत होने पर 'तीसगाणुप्पि तइयं च' अर्थात् तीसरा वेदनीय कर्म स्थितिसत्व की अपेक्षा तीस कोडाकोडी सागरोपम की स्थिति वाले ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मों के ऊपर हो जाता है। इस का तात्पर्य यह है कि मोहनीय, नाम और गोत्र कर्म स्थितिसत्व की अपेक्षा पहले जो तीस कोडाकोडी सागरोपम स्थिति वाले ज्ञानावरणादि कर्मों के स्थितिसत्व के नीचे थे, किन्तु अब वे तीस कोडाकोडी सागरोपम स्थिति वाले ज्ञानावरण‍ दर्शनावरण, अन्तराय कर्म वेदनीय के नीचे हो जाते हैं और वेदनीय कर्म सबसे ऊपर हो जाता है । तदनन्तर उस वेदनीय का अन्य स्थितिबंध सब कर्मों से असंख्यात गुणा हो जाता है। यहां स्थितिबंध का आश्रय करके अल्पबहुत्व इस प्रकार है कि - मोहनीय का स्थितिबंध सब से अल्प होता है, उससे नाम और गोत्र का स्थितिबंध असंख्यात गुणा होता है, किन्तु स्वस्थान में परस्पर समान होता है, उससे भी ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्म का स्थितिबंध असंख्यात गुणा होता है, किन्तु स्वस्थान में परस्पर समान होता है, उससे भी वेदनीय का स्थितिबंध असंख्यात गुणा होता है । तत्पश्चात् इसी विधि से सहस्रों स्थितिबंधों के व्यतीत होने पर तीस कोडाकोडी सागरोपम
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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