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उपशमनाकरण ]
[ २८७ ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय कर्म का स्थितिबंध पल्योपम प्रमाण होता है और मोहनीय का डेढ पल्योपम प्रमाण होता है। तत्पश्चात् ज्ञानावरणादि कर्मों का अन्य स्थितिबंध संख्यात गुणहीन होता है और मोहनीय का संख्यात भागहीन स्थितिबंध होता है। इससे आगे सहस्रों स्थितिबंधों के बीतने पर मोहनीय का स्थितिबंध पल्योपम प्रमाण होता है । पुनः मोहनीय का अन्य स्थितिबंध संख्यात गुणहीन होता है और उस समय शेष कर्मों का स्थितिबंध पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण होता है। अब इस स्थान पर अल्पबहुत्व का विचार किया जाता है -
नाम और गोत्र का स्थितिसत्व सबसे अल्प है । ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अन्तरायकर्म का स्थितिसत्व संख्यातगुणा है, किन्तु स्वस्थान में परस्पर तुल्य है। उससे भी मोहनीय का स्थितिसत्व संख्यातगुणा है और 'मोहस्स जाव पल्ल संखिजभागहत्ति' अर्थात् जब तक मोहनीय का स्थितिबंध पल्योपम प्रमाण नहीं होता है तब तक पूर्ववर्ती सभी मोहनीय का स्थितिबंध पल्योपम के संख्येयतम भाग से हीन हीनतर जानना चाहिये। पल्योपम मात्र स्थितिबंध पर अन्य स्थितिबंध संख्यातगुणहीन करता है, यह पहले कहा जा चुका है। इस संख्यात गुणहीन मोहनीय के स्थितिबंध से बहुत से स्थितिबंधों के व्यतीत होने पर मोहनीय का भी स्थितिबंध पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण हो जाता
है।
उस समय यह कार्य विशेष होता है - 'अमोहा तो नवरमसंखिजगुणत्ति' अर्थात् अमोह यानी मोहनीय को छोड़ कर नाम और गोत्र का ग्रहण करना चाहिये। जिसका आशय यह है कि सभी कर्मों का स्थितिबंध पल्योपम के संख्यातवें भाग प्रमाण होने पर मोह के सिवाय नाम और गोत्र के असंख्यात गुणहीन अन्य स्थितिबंध को आरम्भ करता है, किन्तु शेष कर्मों का संख्यात गुणहीन स्थितिबंध करता
है।
अब इस स्थितिसत्व की अपेक्षा अल्पबहुत्व का विचार करते हैं - इस स्थान पर नाम और गोत्र का स्थितिसत्व सबसे अल्प होता है, उससे ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतरायकर्म का स्थितिसत्व असंख्यात गुणा होता है, किन्तु स्वस्थान में चारों कर्मों का परस्पर समान है। उससे भी मोहनीय का स्थितिसत्व संख्यात गुणा होता है। उसके पश्चात् सहस्रों स्थितिघातों के व्यतीत होने पर ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय और अंतराय कर्म का स्थितिबंध असंख्यात गुणाहीन हो जाता है। उस समय स्थितिसत्व की अपेक्षा अल्पबहुत्व इस प्रकार है – नाम और गोत्र का स्थितिसत्व सबसे कम है। ज्ञानावरणादि चारों का असंख्यात गुणा है, किन्तु स्वस्थान में परस्पर समान है। तत्पश्चात् मोहनीय का स्थितिसत्व असंख्यात गुणा है।
तदनन्तर सहस्रों स्थितिघातों के होने पर 'एक्कपहारेणतीसगाणमहोमोहेत्ति' अर्थात् एक प्रहार