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________________ उपशमनाकरण ] [ २५९ अज्ञान, श्रुतअज्ञान, विभंगज्ञान इन तीनों में से किसी एक साकारोपयोग में तथा मनोयोग, वचनयोग और काययोग इन तीनों में से किसी एक योग में वर्तमान तीनों विशुद्ध लेश्याओं में से किसी एक में वर्तमान अर्थात् जघन्य परिणाम से तेजोलेश्या में, मध्यम परिणाम से पद्मलेश्या में और उत्कृष्ट परिणाम से शुक्ललेश्या में वर्तमान तथा आयु को छोड़कर शेष सात कर्मों की स्थिति को अन्तः कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण करके अशुभ कर्मों में विद्यमान चतु:स्थानक अनुभाग को द्विस्थानक करता है और शुभ कर्मों के विद्यमान द्विस्थानक अनुभाग को चतु:स्थानक करता है तथा पांच प्रकार का ज्ञानावरण, नौ प्रकार का दर्शनावरण, मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय, जुगुप्सा, तैजस, कार्मण, वर्ण, गंध रस, स्पर्श, अगुरुलघु, उपघात, निर्माण और पांच अन्तराय इन सैंतालीस ध्रुवबंधिनी प्रकृतियों को बांधता हुआ, परावर्तमान प्रकृतियों में से अपने-अपने भव के योग्य शुभ प्रकृतियों को बांधता है। उन्हें भी आयु को छोड़कर ही बांधता है। क्योंकि अत्यन्त विशुद्ध परिणाम वाला भी आयुकर्म का बंध आरम्भ नहीं करता है, इस कारण यहां आयुकर्म को छोड़ा गया है। 'भव के योग्य' इस वचन से यह जानना चाहिये कि यदि वह प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाला तिर्यंच अथवा मनुष्य है तो वह देवगति योग्य - देवगति, देवानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, वैक्रियशरीर, वैक्रिय - अंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, पराघात, उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रसदशक, सातावेदनीय और उच्चगोत्र इन इक्कीस शुभ प्रकृतियों को बांधता है और यदि प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करने वाला देव अथवा नारक है तो वह मनुष्यगति के योग्य - मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, पंचेन्द्रियजाति, समचतुरस्रसंस्थान, प्रथम संहनन, औदारिकशरीर और औदारिक - अंगोपांग, पराघात उच्छ्वास, प्रशस्तविहायोगति, त्रसदशक, सातावेदनीय और उच्चगोत्र इन बाईस शुभ प्रकृतियों को बांधता है। यहां इतनी विशेषता है कि सप्तम पृथ्वी का नारक प्रथम सम्यक्त्व को उत्पन्न करता है तो उक्त बाईस प्रकृतियों में मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी और उच्चगोत्र के स्थान पर तिर्यंचगति तिर्यचानुपूर्वी और नीचगोत्र कहना चाहिये। शेष उन्हीं प्रकृतियों को बांधता है। इस बध्यमान प्रकृतियों की स्थिति को अन्तः कोडाकोडी सागरोपम प्रमाण ही बांधता है, इससे अधिक नहीं तथा योग के वश उत्कृष्ट, मध्यम और जघन्य प्रदेशाग्र को बांधता है । वह इस प्रकार समझना चाहिये कि - ___जघन्य योग में वर्तमान जीव जघन्य प्रदेशाग्र बांधता है, मध्यम योग में वर्तमान मध्यम प्रदेशाग्र और उत्कृष्ट योग में वर्तमान उत्कृष्ट प्रदेशाग्र को बांधता है, तथा एक स्थितिबंध के पूर्ण होने
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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