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________________ २६० ] [ कर्मप्रकृति पर दूसरे स्थितिबंध को पहले स्थितिबंध की अपेक्षा पल्योपम से संख्यात भाग से हीन बांधता है। इस प्रकार अन्य अन्य (उत्तरोत्तर) स्थितिबंध को पूर्व पूर्व की अपेक्षा पल्योपम के संख्यातवें भाग से न्यून बंध करता है। उस समय बंधने वाली अशुभ प्रकृतियों के अनुभाग को द्विस्थानक बांधता है और उससे भी प्रति समय अनन्तगुणहीन शुभ प्रकृतियों के चतु:स्थानक अनुभाग को बांधता है और उससे भी प्रति समय अनन्तगुणवृद्धि वाला बांधता है। इस प्रकार करता हुआ वह क्या करता है ? तो इसका उत्तर है - 'करण' इत्यादि, अर्थात् पहले वह यथाप्रवृत्तकरण करता है तत्पश्चात् अपूर्वकरण और उसके अनन्तर अनिवृत्तिकरण करता है। 'करण' परिणाम विशेष को कहते हैं - करणमिति परिणामविशेषः। इसके लिये 'करणं परिणामोऽत्र।' यह वचन प्रामाण्य है। यह तीनों ही करण प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त अर्थात् सभी करणों का काल अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इस क्रम से तीनों करणों को करके वह जीव चौथी उपशान्ताद्धा को प्राप्त करता है और वह अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। यथाप्रवृत्त आदि करणों का स्वरूप अब इन यथाप्रवृत्त आदि तीन करणों का स्वरूप कथन करते हैं - अणुसमयं वड्ढतो, अज्झवसाणाण णंतगुणणाए। परिणामट्ठाणाणं, दोसु वि लोगा असंखिज्जा॥९॥ शब्दार्थ – अणुसमयं - प्रति समय, वड्ढंतो - बढ़ते हैं, अज्झवसाणाण - अध्यवसाय, णंतगुणणाए - अनन्तगुण वृद्धि से, परिणामट्ठाणाणं - परिणामस्थान (अध्यवसायस्थान) दोसु वि- दो करणों में, लोगा - लोकाकाश प्रदेश प्रमाण, असंखिजा – असंख्यात। गाथार्थ – प्रति समय अध्यवसाय अनन्तगुण विशुद्धि से बढ़ते हैं और आदि के दो करणों में अध्यवसायस्थान असंख्यात लोकाकाश प्रदेश प्रमाण होते हैं। विशेषार्थ – अनुसमय अर्थात् समय समय प्रत्येक समय अध्यवसायों की अनन्तगुणी विशुद्धि से अर्थात् प्रतिसमय अनन्तगुणी वृद्धि वाली अध्यवसायों की विशुद्धि से प्रवर्धमान रहता है यानि करणों की समाप्ति तक वह निरंतर विशुद्धि में बढ़ता रहता है। प्रत्येक करण में कितने अध्यवसाय होते हैं ? इस प्रश्न में ग्रन्थकार कहते हैं कि - 'परिणामट्ठाणाणं' इत्यादि अर्थात् यथाप्रवृत्त और अपूर्वकरण इन दोनों करणों के परिणामस्थान
SR No.032438
Book TitleKarm Prakruti Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShivsharmsuri, Acharya Nanesh, Devkumar Jain
PublisherGanesh Smruti Granthmala
Publication Year2002
Total Pages522
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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